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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
है । वस्तुतः ये नियम निषेधार्थक प्रअन् न इन तीन अव्ययों की सत्ता का बखान करते हैं। निषेधार्थक प्रनिपात का प्रयोग चादिगण में, और अव्यय का निरूपण कोशों में उपलब्ध होता है। स्वामी
दयानन्द ने अव्ययार्थ में लिखा है -अप्रभावे । अराजके तु लोके५ ऽस्मिन् सर्वतो विद्रते भयात् (मनु ॥३) । सामपदकार गार्य ने भी
प्र को स्वतन्त्र निषेधार्थक अव्यय मानकर अवग्रह द्वारा प्र की पृथक् सत्ता स्वीकार की है । यथा- रातेः-अरातेः (१।१।१।६), अमित्रम् -अ मित्रम् (१।१।२।१), अमृतम्-अ मृतम् (१।१।४।१)।
इसी प्रकार पदकार गार्ग्य ने अजादि उत्तरपद को नुट् का जहां अागम होता है, वहां न् को पूर्वान्वयी मानकर अन् के साथ अवग्रह दर्शाया है।
२-प्रत्ययान्तर सद्भाव की कल्पना-जैसे प्रकृति में लोप प्रागम वर्णविकार आदि के निर्देश से प्रकृत्यन्तर का सद्भाव ज्ञापित होता है,
उसी प्रकार प्रत्ययों में भी लोप आगम आदेश द्वारा प्रत्ययान्तर का १५ सद्भाव द्योतित होता है।
पाणिनि ने समासेऽनपूर्वे क्त्वो ल्यप् (अ० ७१।३७) सूत्र द्वारा समास में 'क्त्वा' के स्थान में 'ल्यप्' का विधान किया है । यह 'ल्यप्' स्वतन्त्र प्रत्ययरूप में भी प्रयुक्त देखा जाता है । यथा
संध्यावधूगृह्य करेण भानुः । पाणिनीय जाम्बवती विषय । प्राज्येनाक्षिणी प्रज्य । आश्वलायन श्रौत ५।१६।६।। शुचौ देशे स्थाप्य । पारस्कर परिशिष्ट स्नानसूत्र । अर्घ्य तान देवान् गतः । काशिका ७।३।३८ में उद्धृत । उष्य । रामायण ११२७॥१॥ दृश्य । रामायण ११४८॥११॥
पाणिनि ने ङित् लकारों में तस् थस् थ मिप् के स्थान में ताम् तम त अम (अ० ३।४।१०१) आदेश कहे हैं। महाभाष्यकार इस के विषय में कहते हैं'एकार्थस्यैकार्थः, द्वयर्थस्य द्वयर्थः, बह्वर्थस्य बह्वों यथा स्यात् ।'
प्र० ११॥४६॥ ३० अर्थात्-एक अर्थवाले 'मिप्' के स्थान में एक अर्थवाला 'अम्'
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