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________________ ३/५ पाणिनीय व्याकरण की वैज्ञानिक व्याख्या ३३ व्रीहि में भी अकारान्त ग्रह शब्द की प्रवृत्ति देखी जाती है । पाली व्याकरण के अनुसार 'राजन्' शब्द की कतिपय विभक्तियों में नकारान्त और अकारान्त दोनों के रूप प्रयुक्त होते हैं । यथाद्वि० ए० - राजानम्, राजम् । तृ० ए० - राज्ञा, राजेन । स० ब० राजसु राजसु । - प्राचीन प्राचार्यों का एक वचन है- विभाषा समासान्तो भवति (समासान्तविधिरनित्यः - पाठा० ) । इस वचन का वास्तविक भाव यही है कि समासान्त प्रत्यय करने पर लोकप्रसिद्ध उत्तर पद का जो स्वरूप निष्पन्न होता है, उस अप्रसिद्ध शब्द और लोकप्रसिद्ध दोनों प्रकार के शब्दों से निष्पन्न समस्त प्रयोगों का साधुत्व जानना १० चाहिये । यथा सत्यधर्माय दृष्टये । ईशोप ० में अकारान्त धर्मशब्द | सत्यधर्माणमध्वरे । ऋ० १।१२।४ में नकारान्त धर्मन् शब्द । इसी नियम के अनुसार नकारान्तरूप से प्रसिद्ध कर्मन् शब्द अकारान्त (कर्म) भी देखा जाता है । ऋ० १०।१३०।१ में देवकर्मभिः प्रयोग प्रकारान्त कर्म शब्द का ही है । १५ इसी प्रकरण का दूसरा सूत्र है - ऊधसोऽनङ् (प्र० ५ १४ । १३१) । इस से ऊधस्' को समासान्त 'अनङ' आदेश करके जो 'ऊधन्' शब्दरूप बनाया जाता है, उसके ( = ऊधन् के) विना समास के अनेक विभक्तियों के रूप वेद में उपलब्ध होते हैं । इस व्याख्या के अनुसार सारा समासान्त प्रकरण द्विविध प्रकृतियों (विना समासान्त के जो शुद्ध रूप हैं, और समासान्त करने पर शास्त्रीय कार्य होकर जो रूप निभन्न होता है) का बोधक है । इस प्रकार केवल एक समासान्त प्रकरण से ही शतशः शब्दों के मूलभूत दो-दो रूपों का परिज्ञान हो जाता है । २० २५ नञ् समास में अब्राह्मणः प्रनश्वः नपात् आदि तीन प्रकार के प्रयोगों के साधुत्व के लिए नलोपो नञः, तस्मान्नुचि, नम्राण्नपान्नवेद० (अ० ६।३।७२, ७३,७४ ) तीन नियम पाणिनि ने लिखे हैंप्रथम नियम के अनुसार नञ् के नकार का लोप होता हैं । द्वितीय से अजादि उत्तरपद को नलोपीभूत प्रकार से परे नुट् का आगम कहा ३० है, और तृतीय नियम से कुछ शब्दों में न लोप का प्रभाव दर्शाया
SR No.002284
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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