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________________ सातवां परिशिष्ट ५. हरिचन्द्रः निजकीर्तेर्वैजयन्तीं कर्णकीत्ति चकार यः। हरिचन्द्रो विजयते पाञ्चालक्षितपः कविः ॥२०॥ ६. मातृगुप्तः मातृगुप्तो जयति यः कविराजो न केवलम् । कश्मीरराजो'ऽप्यभवत् सरस्वत्याः प्रसादतः ॥२१॥ विधायशूद्रकजयं सर्गान्तानन्दमद्भुतम् । न्यदर्शयद् वीररसं कविरावन्तिकः कृतिः ॥२२॥ ७. हरिषेणः तुङ्ग ह्यमात्यपदमाप्तयशः प्रसिद्धं, भुक्त्वा चिरं पितुरिहास्ति सुहृन्ममायम् । सन्धौ च विग्रहकृतौ च महाधिकारी, विज्ञः कुमारसचिवो नृपनीतिदक्षः ॥२३॥ काव्येन सोऽघ रघुकार' इति प्रसिद्धो, यः कालिदास इति महाहनामा । प्रामाण्यमाप्तवचनस्य च तस्य धर्पा, १. हर्षचरित में हरिचन्द्र के विषय में लिखा है पदबन्धोज्ज्वलो हारी कृतवर्णक्रमस्थितिः । भट्टारहरिचन्द्रस्य गद्यबन्धो नृपायते ॥ यहां 'भट्टार' शब्द के प्रयोग से हरिचन्द्र का राजा होना स्पष्टरूप से जाना जाता है। २. मातृगुप्त के काश्मीर देश के नृप होने का वर्णन कल्हण विरचित राजतरङ्गिणी में मिलता है। ३. हरिषेण कवि को यहां रघुवंश' के रचयिता होने रघुकार और काव्य निर्माण प्रतिकुशल तथाप्रतिभावान् होने से सम्मानलब्ध कालिदास के नाम से प्रसिद्ध कहा है। कृष्णचरित के सम्पादक श्री पं० जीवराम कालिदास ने । पृष्ठ ५८-६० तक हरिषेण विरचित शिलालेख और रघुवंश के अनेक पाठों की तुलना देकर दोनों के एककर्तृक होने की पुष्टि की है।
SR No.002284
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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