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________________ ५ १० १०० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ब्रह्मत्वमध्वरविधौ मम सर्वदैव ॥२४॥ चत्वार्यन्यानि काव्यानि व्यदधाच्चलघूनि यः । प्राभावयच्च मां कत्तु कृष्णस्य चरितं शुभम् ॥ २५॥ हरिषेण - कविर्वाग्मी शास्त्रशस्त्रविचक्षणः । यशोलभतकाव्यैः स्वैर्नाना चरितशोभनैः ॥२६॥ येषां न केवलं काव्यं श्रेष्ठं धर्मार्थ कामदम् । राजता वा राजनीतिरूपकर्त्री मनः स्थिता ॥ २७॥ ते राजकवयोऽमात्याः शुद्धकर्मगुणैर्भुवि । वर्णिताष्टगुरवो दिङ्नागप्रतिपक्षिणः ॥ २८ ॥ ॥ इति श्री विक्रमामहाराजाधिराजपरमभागवतश्रीसमुद्रगुप्तकृतौ कृष्णचरित प्रस्तावनायां राजक विकीर्तनम् ॥ ॥ अथ जीविकाकवयः ॥ ............100... ..... १. यहां दिङ्नाग' शब्द से दिङ्नाग' नामा बौद्ध पण्डित अभिप्रेत नहीं १५ है । 'दिङ नाग' शब्द आठों दिशाओं में विद्यमान कवि समय रूप में प्रसिद्ध · हस्ती का ग्रहण जानना चाहिये । हस्ती शब्द से 'आठ' संख्या का ग्रहण कवि समुदाय में प्रसिद्ध है । 'प्रतिपक्ष' शब्द केवल प्रतिद्वन्दी का ही वाचक नहीं उपमार्थ में भी काव्यादर्श में प्रयुक्त है ।
SR No.002284
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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