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________________ आठवां परिशिष्ट - पदप्रकृति: संहिता हमने 'व्या० शा० का इतिहास' के दूसरे भाग में पृष्ठ ३६२ पर प्रातिशाख्य ग्रन्थों का सम्बन्ध चरणों के साथ है अर्थात् एक चरणान्तर्गत जितनी शाखाए है उन सब के साथ उस उस प्रातिशाख्य का ५ सम्बन्ध है, केवल एक एक शाखा के साथ प्रातिशाख्यों का सम्बन्ध नहीं है । यह दर्शाने के लिये हमने निरुक्त १।१७ का वचन उद्धृत किया है पदप्रकृतिः संहिता, पदप्रकृतीनि सर्वचरणानां पार्षदानि । प्रकृत में पदप्रकृतिः संहिता वचन विवेचनीय है। दुर्गाचार्यादि १० व्याख्याकारों ने इस वचन के दो अर्थ किये हैं १- पदानां प्रकृतिः संहिता-पदों की प्रकृति संहिता है। अर्थात् संहिता पाठ पदपाठ की प्रकृति है और पदपाठ विकृति है। ...२-पदानि प्रकृतिर्यस्याः सा संहिता-पद प्रकृति हैं जिस की वह संहिता । इस अर्थ में पदपाठ प्रकृतिरूप है और संहिता विकृतिरूप। १५ इस द्वितीय अर्थ को लेकर अनेक विद्वन्मन्य यह कहते हैं कि पहले मन्त्र पद पाठ के रूप में थे। उनमें परस्पर सन्धि आदि करके संहितारूप दिया गया। इस पर विचार करने के लिये हमें वैदिक परम्परा पर भी विचार करना होगा। वैदिक परम्परा में वेद का मुख्य रूप से तीन प्रकार से पाठ होता २० है-संहिता, पद, क्रम । क्रमपाठ के अनन्तर जटादि घनान्त अष्टविकृति यूक्त भी पाठ होता है। विभिन्न संहिताओं के घनान्त वेदपाठी अभी भी यत्र तत्र उपलब्ध हैं। ऐतरेय आरण्यक ३।११३ में वेद के निर्भुज और प्रतृण्ण पाठों का.. उल्लेख मिलता हैं । वहां कहा है- ... यद्धि सन्धि वर्तयति तन्निभुजस्य रूपम् । अथ अच्छुद्धे प्रक्षरे ..
SR No.002284
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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