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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
अभिव्याहरति तत् प्रतृष्णस्य । अम्र उ एवोभयमन्तरेणोभयं व्याप्तं भवति ।
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अर्थात् — जो सन्धि करता है वह निर्भुज का रूप है । जो दो शुद्ध अक्षरों को बोलता है वह प्रतृष्ण का रूप है और जो सिद्ध पद स्वरूप पश्चात् संहिता प्रवृत होती है वह दोनों के मध्यवर्ती होने से दोनों [ पद और संहिता ] को व्याप्त होता है । अर्थात् उसमें दोनों धर्म होते है । इसे क्रम पाठ अथवा क्रम संहिता कहा जाता है ।
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इन तीनों को स्पष्ट करते हैं
१ - संहिता = निर्भुज - इषे त्वोर्जे त्वा वायव स्थ देवो वः सविता १० प्रार्पयतु ।
२ - पदपाठ = प्रतृष्ण - इषे । त्वा । ऊर्जे । त्वा । वायवः । स्थ। देव: । वः । सविता । प्र । र्पयतु ।
३ - क्रमपाठ = उभयव्याप्त - इषेत्वा । त्वोर्जे । ऊर्जेत्वा । त्वावायवः । वायवस्थ | स्थदेवः । देवो वः । वः सविता । सविताप्र । १५ प्रार्पयतु ।।
संहिता पाठ में त्वा + ऊर्जे में प्रोकार सन्धि, वायवः स्थ में विसर्ग का लोप, देवः+वः में ओोकार और प्र + अर्पयतु में दीर्घ सन्धि हुई है। पदपाठ में उक्त पदों की सन्धियों का विच्छेद करके प्रत्येक पद के आद्यन्त अक्षर के शुद्ध रूप में उच्चरित होते हैं ।
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क्रमपाठ में प्रथम पद को द्वितीय से मिलाकर, द्वितीय को तृतीय से मिलाकर, तृतीय को चतुर्थ से मिलाकर ( इसी प्रकार यागे भी ) जो पाठ होता है उसमें दो पदों के मध्य सन्धि संभाव्य हो तो वह हो जाती है । इस प्रकार मिले हुए दो पदों के समुदाय के प्राद्यन्त अक्षर शुद्ध बोले जाते हैं और मध्य में सन्धि होती है । इसलिये इसमें पद और संहिता दोनों के धर्मव्याप्त होने से यह पाठ उभयव्याप्त कहता है।
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यह निदर्शन स्थूल दृष्टि से दर्शाया है । वस्तुतः संहिता का लक्षण है - परः सन्निकर्षः संहिता ( भ्रष्टा० १ । ४ । १०९ ) । इस लक्षण के संहिता पाठ में प्रत्येक पद अक्षर का ३० अत्यन्त सन्निकृष्टता - समीपता = अव्यवधानता से उच्चारण
किया