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११८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास शोषणयोः । इस सन्दर्भ पर उद्योत में नागेश की टिप्पणी है कि इस महाभाष्य सन्दर्भ से प्रकट होता है कि प्रोचीन धातुपाठ में कुछ धातुएं वस्तुतः अर्थसहित पढ़ी गई थीं । और पतञ्जलि के उद्धरण धातुपाठ के अर्वाचीन पाठों में धातुओं एवं अर्थों के निर्देश प्रकार के अनुरूप है। लिबिश ने इस पर ध्यान दिया था और हस्तलेख के पाठ के आधार पर सुझाव दिया था कि 'निशामने', 'गतिशोषणयोः' सप्तम्यन्तरूप पश्चात्-कालिक अर्थ हैं जो महाभाष्य के पाठ में प्रविष्ट हो गये हैं।
२१. (पृ० १६४)-केवल आधुनिक विद्वान् ही यह सुझाव नहीं १० देते कि धातुपाठ पाणिनि प्रणीत नहीं है। जिनेन्द्रबुद्धि भी ऐसा ही
कहता है । यु० मी० (१९७३ : २ : ४३-५१) ने उपर्युक्त सन्दर्भ दिये हैं और प्रतिहेतु उपस्थित किये हैं।
२२. (पृ० १६५)-यु० मी० (१९७३ : २ : १४१-४६१) ने गणपाठ के पाणिनि प्रोक्तत्व के पक्ष-विपक्ष में हेतुओं को लिया है १५ और निष्कर्ष निकाला है कि यह पाणिनि प्रोक्त है। मैं इस निष्कर्ष से सहमत हूं।
२३. (पृ० १७०)-यु० मी० (१९४३ : भूमिका पृ० २९४; १९७३ : २ : २२६-३१*) ने यह दिखाने के लिए साक्ष्य उपस्थित किया है कि दशपादी पाठ पञ्चपादी से उत्तरवर्ती है और वस्तुतः उसी पर आधृत है । मैं समझता हूं कि यह साक्ष्य स्वीकरणीय है। ___२४. (पृ० १७३) -यु० मी० (१९४३ भूमिका पृ० ११,२६१) ने अपने पूर्व ग्रन्थ में स्वीकार किया है कि वे उणादि सूत्र के प्रवक्ता का निश्चय नहीं कर सके । पश्चात् उन्होंने मत व्यक्त किया (१९७३ :
$ हम लिबिश के मत से सहमत नहीं, क्योंकि यह पाणिनीय परम्परा के ५ विरुद्ध है । द्र० प्रस्तुत सं० पृष्ठ ५६-६० ।
£ प्रस्तुत संस्करण, पृष्ठ ४४-५२। ।
प्रस्तुत संस्करण, पृष्ठ १५२-१५८ । ४ यह दशपाधुणादिवृत्ति की भूमिका की पृष्ठ संख्या है। * प्रस्तुत संस्करण भाग २, पृष्ठ २४५-२४७ । * यह दशपाधुणादिवृत्ति की भूमिका की पृष्ठ संख्या है।
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