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नौवां परिशिष्ट
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१ : १४४, २ : २०११) कि पञ्चपादी प्रापिशलि प्रोक्त है तथा दशपादी स्वयं पाणिनि प्रोक्त । परन्तु यु० मी० स्वीकार करते हैं कि यह केवल मत है।
२५. (पृ० १७६)- परन्तु कपिलदेव शास्त्री और यु० मी० (१९७३ : २ : ३१७६) ने एक साक्ष्य प्रस्तुत किया है जो उन के ५ मतानुसार फिट् सूत्रों को पाणिनि से पूर्ववर्ती स्थापित करता है । वह है-पाणिनि का प्रत्याहार सूत्र 'ऐ ौ च' च अनुबन्धयुक्त है। चन्द्रगोमी के १३ वें प्रत्याहार सूत्र पर वृत्ति कहती है कि पूर्व व्याकरण में इसके स्थान पर 'ऐ औ ष' ष-अनुबन्धयुक्त सूत्र था। उदाहरण हैं-फिट २।४; २।१६ जिन में द्वयष्, बह्वः प्रयुक्त हुए हैं १० जो पाणिनि द्वयच, बह्वच के समान हैं । यह उदाहरण फिट के पाणिनि-पूर्ववर्तित्व विषयक सन्देह को दूर कर देता है। परन्तु न तो क० दे० शास्त्री ने, न ही यु० मी० ने कीलहान प्रदत्त साक्ष्य के साथ इस का समन्वय किया है। [कील०-फिट लुबन्तस्योपमेयनामधेयस्य (२।१६) पाणिनीय लुम्मनुष्ये (५।३।६८) को पूर्व कल्पित करके - १५ प्रवृत्त होता है] अपि च, इससे केवल यह प्रकट होता है कि चन्द्रगोमी ष्-अनुबन्ध को पूर्व व्याकरण में प्रयुक्त हुआ समझता है, इससे उक्त प्रतिज्ञा सिद्ध नहीं होती।
कीलहान ने महा० ६।१।१२३ से निष्कर्ष निकाला है कि पतअलि न तो फिष संज्ञा को, न फिषोऽन्त उदात्त को जानता था। २० दूसरी ओर यु० मी० (१९७३ : २ : ३१५-१६%) महाभाष्य के
प्रस्तुत संस्करण, भाग १, पृष्ठ १५७; भाग २, पृष्ठ २१५ । $ प्रस्तुत संस्करण, भाग २ पृष्ठ ३५१,३५२ ।
£ प्रतीत होता है कि कीलहान ने फिट्सूत्रों के चार पादों को ही स्वतन्त्र ग्रन्थ मानकर उक्त निष्कर्ष निकाला है । जब कि हम अपने इतिहास में अनेक २५ प्रमाणों ओर हेतुओं के आधार पर यह प्रामाणित कर चुके हैं कि फिट्सूत्र किसी बृहत्तन्त्र का एक देश है। ऐसी अवस्था में लुबन्तस्योपमेयनामधेयस्य (फिट् २०१६) को पाणिनि के लुम्मनुष्ये (५।३।६८) सूत्र पर आश्रित मानना किसी प्रकार भी उपपन्न नहीं हो सकता । अतः कीलहान का साक्ष्य साध्यसम है । इसके विपरीत हमारे मन्तव्य में किसी प्रकार का दोष नहीं आता।
के प्रस्तुत संस्करण, भाग २, पृष्ठ ३५०-३५१ ।
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