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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
उद्धरणों से स्थापित किया है कि पतञ्जलि फिटसूत्रों से परिचित था.. - मेरे (कार्डोना) मत में फिटसूत्र पाणिनि के उत्तरवर्ती हैं। पतञ्जलि ऐसे सूत्रों से परिचित था, सम्भव है वे ये ही हों या इनसे बहुत समान हों।
२६. (पृ० १७८)-यु० मी० ( १९७३ : २ : २५६-५७* ) का मत है कि [लिङ्गानुशासन] पाठ पाणिनि प्रोक्त है। उन्होंने अपने मत के समर्थन में दो प्रकार के साक्ष्य दिये हैं-प्रथम, व्याख्याकार इस को स्वीकार करते हैं [पदमञ्जरी] । द्वितीय, महाभाष्य
से उद्धरण, जिस से प्रतीत होता है कि पाणिनि प्रोक्त कहे जाने वाले १० लिङ्गानुशासन से कात्यायन तथा पतञ्जलि परिचित थे। कात्यायन
(७।१।३३) अपने वात्तिक में कहता है-युष्मद् अस्मद् अलिङ्ग हैं, पतञ्जलि कहता है-अलिङ्गे युष्मदस्मदी। यु० मी० कहते हैं कि इस से प्रतीत होता है कि कात्यायन तथा पतञ्जलि लिङ्गानुशासन के सूत्र १८४ 'अव्ययं कति युष्मदस्मदः (अविशिष्टलिङ्गम्) से परिचित थे। मैं इन हेतुओं को स्वीकरणीय नहीं समझता। हरदत्त के कथन से लिङ्गानुशासन का पाणिनीय व्याकरण ग्रन्थ सहायक अङ्गत्व सिद्ध होता है, इसये स्वयं पाणिनि का लिङ्गानुशासन-कर्तृत्व सिद्ध नहीं होता। महाभाष्य-सन्दर्भ से मात्र इतना द्योतित होता है कि कात्यायन एवं पतञ्जलि युष्मद्-अस्मद् के अलिङ्गत्व से परिचित थे। उनके कथन से किसी भी प्रकार न तो यह सिद्ध होता है कि वे किसी लिङ्गानुशासन से उद्धृत कर रहे हैं, न ही यह कि वे पाणिनीय व्याकरण से सम्बद्ध किसी विशेष लिङ्गानुशासन से परिचित हैं।
* प्रस्तुत संस्करण, भाग २, पृष्ठ २७६ ।
+ हरदत्त का वचन है-अप्सुमनःसमासिकतावर्षाणां बहुत्वं चेति पाणि५ नीयं सूत्रम् । जार्ज कार्डोना ने इस का सीधा अर्थ स्वीकार न करके जो
कल्पना की है, उसे कोई भी संस्कृतज्ञ विद्वान स्वीकार नहीं कर सकता । हरदत्त के उद्धरण को प्रामाणिक मानने वा न मानने में तो प्रत्येक व्यक्ति स्वतन्त्र हो सकता है, परन्तु हरदत्त के वचन की अन्यथा व्याख्या करना अनुचित है।
यह कार्य वही कर सकता है जो पक्ष प्रतिपक्ष पर विचार न करके पहले से यह ३० स्वीकार कर ले कि लिङ्गानुशासन पाणिनीय नहीं है।