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________________ ११७ नौवां परिशिष्ट मुख्य साक्ष्य यु० मी० ( १९७३ : २ : ५१-५८४ ) ने सुसंगृहीत किये हैं। (पृष्ठ १६१) टि० ८२ (पृ० ३२२-२३)-यु० मी० के संक्षिप्त संग्रह का संस्कृत रूपान्तर द्वारकादास शास्त्री (१९६४ : भूमिका पृ० ४-८) ने दिया है। २०. (पृ० १६२-१६३)-परन्तु यु० मी० (१९७३ : २ : ५४५८१) ने सिद्ध किया है कि अर्थयुक्त धातुपाठ पाणिनि प्रोक्त होना चाहिये । जिन हेतुओं को उन्होंने दिया है, उन में से अधिकांश मुझे मान्य नहीं। उन में से एक पर विचार करें । यु० मी० ने पतञ्जलि का कथन उद्धृत किया है-'वपिः प्रकिरणे दृष्टश्छेदने चापि वर्तते।' १० यु० मी० (१९७३ : २ : ५४१) टिप्पणी करते हैं कि 'दृष्ट' वर्तते' का पर्याय नहीं है और कहते हैं --'अतः यहां जिन धात्वर्थों को दृष्ट कहा जाता है, वे धातुपाठ में पठित हैं अथवा धातुपाठ में देखे गये हैं और जिन के लिए वर्तते का प्रयोग किया है, वे लोक में व्यवहृत हैं, यही अभिप्राय इस वचन का है। प्रकृत वाक्य से अनिवार्यतया यह १५ निष्कर्ष नहीं निकलता । प्रकरण है- क्या उपसर्गों का अपना स्वतन्त्र अर्थ है या धातुओं के, जो बह्वर्थ होती हैं, अर्थो के द्योतक हैं ? द्वितीय पक्ष को दिखाने के लिए धातुओं की एक सरणि उपस्थित की गई है । उदाहरणार्थ, कृ का अर्थ न केवल करना ही है अपितु निर्मली. करण एवं निक्षेपण भी है। अत: इस प्रकरण में प्रयुक्त 'दृष्ट' शब्द २० को केवल विशिष्ट अर्थों में दिखाई देने वाली धातुओं के संकेत के लिए प्रयुक्त हुआ माना जा सकता है, न कि अनिवार्यरूप से धातुपाठ में अर्थनिर्देशार्थ । परन्तु य० मी० (१९७३ : २ : ५४) द्वारा उद्धृत एक साक्ष्य ऐसा है जिसे सरलता से निरस्त नहीं किया जा सकता। पतञ्जलि ने १।३।७ के भाष्य में कहा है कि प्राचार्य पाणिनि ने कुछ २५ धातुओं को अर्थ-सहित पढ़ा है, जैसे उबुन्दिर निशामने, स्कन्दिर् गति ४ प्रस्तुत संस्करण, भाग २, पृष्ठ ५२-६० । प्रस्तुत संस्करण, भाग २, पृष्ठ ५५-६० । + प्रस्तुत संस्करण, भाग २, पृष्ठ ५६ । £ प्रस्तुत संस्करण, भाग २, पृष्ठ ५५।
SR No.002284
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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