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आठवां परिशिष्ट
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स्वरशास्त्र के किसी नियम का विरोध न होने से 'मा । सकृत् ' अथवा 'मासकृत्' दोनों पदच्छेद स्वीकार किये जा सकते हैं । इतना ही नहीं, यदि कोई पदकार सावधानता से स्वरशास्त्र का ध्यान न रखकर प्रयुक्त पदच्छेद कर दे तो उसको अप्रामाणिक भी माना जा सकता है । यह द्वितीय उदाहरण में यास्क के वचन से स्पष्ट है ।
इस विवेचना से स्पष्ट हैं कि जो विद्वान् पदप्रकृतिः संहिता लक्षण के अनुसार तथा प्रातिशाख्यों में सन्धि के नियमों का उल्लेख होने से यह मानते है कि मन्त्र पहले पदरूप में थे, उनका संहितापाठ पीछे से बनाया गया है । यह मत सर्वथा प्रयुक्त है । पदप्रकृतिः संहिता लक्षण तथा प्रातिशाख्यों में विहित सन्धि के नियम क्रमसंहिता के लिये हैं । १० यह प्रातिशाख्यों के गम्भीर अध्ययन से स्पष्ट हो जाता है ।