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________________ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास द्वारा पदों के स्वरूप का ज्ञान कराना है । यह मन्त्रों के अर्थ ज्ञान में परम सहायक है । अतः पदपाठ का मूल प्रयोजन है-मन्त्रों का अर्थज्ञान कराना । क्रमपाठ का प्रयोजन है पूर्वापर पदों की स्मृति । इसी लिये कहा है-क्रमः स्मृतिप्रयोजनः (शु० यजुः प्राति० ४।१८२) । '५ यह स्मरण मन्त्रपाठ की स्मृति में परम सहायक होता है। जो विदेशी विद्वान वा उनके अनुकर्ता भारतीय विद्वान् हैं उनसे हम पूछना चाहते हैं कि यदि मन्त्रों का पदपाठ पुराना है और संहितापाठ उन पदों में सन्धि आदि कार्य करके निष्पन्न किये गये तो वे बताएं कि कौन सा पदपाठ संहितापाठ से प्राचीन था। उदा१० हरण के लिये हम दो उदाहरण उपस्थित करते हैं १-ऋग्वेद में एक मन्त्र है-अरुणोमासकृद्धृकः (१।१०५।१८)। इस मन्त्र का शाकल्यकृत पदपाठ है-अरुणः। मा। सकृत् । वकः। क्या यही पदपाद संहितापाठ का मूल था ? यदि यही पदपाठ मूल था तो यास्क का निरुक्त ५२१ में अरुणः। मासकृत् । वकः १५ आदि दया पदपाठ कैसे उपपन्न होगा ? २-ऋग्वेद १०।२६।१ का मन्त्र है--वनेनवायोन्यधायिचाकन । इसका शाकल्य कृत पदपाद है-वने । न। वा। यः । नि । अधायि। चाकन । यदि यही पदपाठ मन्त्र की संहितापाठ का मूल है तो यास्क का वा इति य इति च चकार शाकल्यः, उदात्तं २० त्वेवमाख्यातमभविष्यत् (निरुक्त ६।२८) अर्थात् शाकल्य ने वा और यः दो पद माने हैं। ऐसा मानने पर 'यः' के योग में 'अधायि' क्रिया को उदात्त होना चाहिये परन्तु मन्त्र में अनुदात्त है। इसलिये यास्क ने वायः एक पद माना है-वायः-वेः पुत्रः। यहां विचारना होगा कि वनेनवायः मन्त्र में मूल पदपाठ जिससे संहिता पाठ रचा गया २५ कौन सा था ? उक्त उदाहरणों में दोनों पदपाठों को तो संहिता का मूल स्वीकार कर नहीं सकते एक को ही मूल पद स्वीकार करना होगा। ___ भारतीय परम्परा के अनुसार मन्त्र का- मूलपाठ संहिता पाठ मानने पर कोई दोष नहीं पाता पदकार या व्याख्यात स्वरशास्त्र को ३० ध्यान में रखकर विविध पदच्छेद कर सकता है। अतः प्रथम मन्त्र में
SR No.002284
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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