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जाम्बवती - विजय के उपलब्ध श्लोक वा श्लोकांश
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'इदमुदाहरणं समासोक्तेः - उपोढ [............. •] परोऽपि मोहाद् गलितं न रक्षित (म्) । अत्र शशिरजनी व्याषाणपरे य प्रxxx सह x त ।
यह 'उपोढ ...''गलितं न रक्षितम्' पाठ ( जो मध्य में त्रुटि एवं भ्रष्ट है ) पाणिनीय काव्य का है। इसका पूरा पाठ पूर्व संख्या १२ पर देखें ।
उक्त टीका ग्रन्थ उद्भट का विवरण है, ऐसा विद्वानों का अनुमान है । यह भोजपत्र पर १०वीं शती की शारदा लिपि में लिखा हुआ है ।
सुभाषित रत्नकोशका सन् १६५७ में हार्वड विश्वविद्यालय से एक सुन्दर संस्करण छपा है । इसके सम्पादक हैं- डी० डी० कोसाम्बी १० और वी० वी० गोखले । इस संस्करण के अन्त में परिशिष्ट में 'नन्दन ' कृत 'प्रसन्न - साहित्य रत्नाकर' में संगृहीत कतिपय कवियों के वचनों का संग्रह किया गया है । इसमें पृष्ठ ३३१ पर पाणिनि के निम्न दो श्लोक उद्धृत हैं
(२९-३०)
अनहि जितनीडजेन्द्रवेगे कृतनिबिडासनमुच्तिाघ पीडे । स्मरशमनत डित्कडारदृष्टि मडमुडुराडुपशोभिचूडमीडे ॥ हरकोपानलप्लुष्ट विरूढस्मरशाखिनः ।
यमाभाति तन्वङ ग्याः पाणिः प्रथमपल्लवः ||
पक्षिराज गरुड से भी शीघ्रगामी, प्रसन्न मन बैल पर अपना अडिग आसन लगाये, अपनी कोप दृष्टि से कामदेव को भस्म करने वाले, चन्द्रचूड़ भगवान् शिवशंकर की मैं स्तुति करता हूं ।
तन्वङ्गी का यह हाथ हर (महादेव) के कोप रूप अग्नि से दग्ध कामदेव रूपी वृक्ष का झड़ा हुआ नवीन पल्लव रूप प्रतीत होता है ।
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राजशाही ( बंगला देश) से सन् १९१८ में प्रकाशित भाषावृत्ति २५ के सम्पादक श्रीशचन्द्र चक्रवती भट्टाचार्य ने 'प्रोत्' (श्रष्टा० १|१| १५) सूत्र के अहो अहम् उदाहरण की टिप्पणी (पृष्ठ ५) में जाम्बवतीविजय का निम्न श्लोक उद्धृत किया है