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. संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
अहो अहं नमो मां यदुद्धृत्य सुमध्यया ।
उल्लास्य नयने दोघे सकाङ्क्षमहमीक्षितः॥' जाम्ववती के दर्शन के अनन्तर श्री कृष्ण ने कहा- मैं धन्य हूं, मुझे नमस्कार है अर्थात् मैं सत्कृत हुअा हूं, जो सुमध्या जाम्बवती ने अपने विशाल नेत्र उठाकर और खोलकर आकाङ्क्षा सहित मुझे देखा है।'
जाम्बवतीविजय का यह श्लोक श्रीशचन्द्र चक्रवर्ती ने कहां से प्राप्त करके उद्धृत किया, इसका उन्होंने कोई संकेत नहीं किया। १० श्लोक के अनन्तर टिप्पणी का अंश है
इति जाम्बवतीविजयकाव्ये जाम्बवतीदर्शनोत्तरं कृष्णोक्तिः ।
इससे प्रतीत होता है कि उन्होंने टिप्पणी सहित यह श्लोक सम्भवतः सृष्टिधर विरचित ‘भाषावृत्त्यर्थ विवृति' से लिया होगा अथवा बंगाल में प्रसिद्ध किसी अन्य व्याकरण ग्रन्थ से लिया होगा।
इसी प्रकरण में धर्मपाणिनि के नाम से एक श्लोक उद्धत है। यह धर्मपाणिनि कौन है यह ज्ञातव्य है । श्लोक इस प्रकार है
नीलाम्भोरुहकानने न विशति ध्वान्तोत्कराशया स्वक्रोडोच्छलिताश्च वारिकणिकास्ताराभ्रमात् पश्यति । सत्रासं मुहुरीक्षते च चकितो हंसं हिमाशुभ्रमान्
न स्वास्थ्यं भजते दिवापि विरहाशङ्की रथाङ्गाह्वयः॥ वियोग की आशंका से चक्रवाक नीलकमलों के समूह को रात्रि का अन्धकार समझकर उनमें प्रवेश नहीं कर रहा है। अपनी जल क्रीड़ानों में उछाले गए जल के कणों को तारे समझ कर उन्हें निहार रहा है, और चकित होकर सूर्य को चन्द्रमा समझकर पुनः पुनः उसे देख रहा है । इस प्रकार वह बेचारा दिन में भी चैन का अनुभव नहीं कर पा रहा है।
यह श्लोक सदुक्तिकर्णामृत २।१४।२ में धर्मपाल के नाम से स्मृत है।
॥ इति जाम्बवतीविजय-काव्योद्धरण-संकलनं समाप्तम् ॥ १० १. इस श्लोक की सूचना श्री विजयपाल शास्त्री (शोध-छात्र) दिल्ली ने
अपने १८।६।८४ के पत्र में दी है।