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सातवां परिशिष्ट
• समुद्रगुप्त - विरचितम् कृष्णचरितम् ..
में [ हमने पाणिनि व्याडि कात्यायन और पतञ्जलि के प्रकरण समुद्रगुप्त विरचित कृष्णचरित के अनेक उद्धरण दिये हैं। इसका स्वल्प सा उप- ५ भाग गोंडल ( काठियावाड़) के राजवैद्य जीवाराम कालिदास ने स्वीय विवरण सहित सन् १९४१ में छपवाया था । यह सम्प्रति दुर्लभ हो गया है । श्रतः जिज्ञासु पाठकों की जिज्ञासा शान्त्यर्थ हम यहां प्रकाशित कर रहे हैं ]
मुनिकवयः
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२. शाङ्खायन
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शाङ्ख्यायनाय कवये नमोऽस्तु कण्ठाभरणकर्त्रे ।
काव्यं यस्य रसाढ्य ं कण्ठाभरणं सदा विदुषाम् ॥ १३.
३. वररुचिः कात्यायनः
'मिवाकरोत् ' ॥१२॥
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यः स्वर्गारोहणं कृत्वा स्वर्गमानीतवान् भुवि ।
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१.५
१. इस से पूर्व १२ लोक हस्तलेख के अद्य एक वा दो पत्रों के विनष्ट हो जाने से लुप्त हो गये । प्रकृत मुनिकवि-वर्णन के अन्त में ३३वें श्लोक में 'दशमेऽभिहिताः ' वचन से विदित होता है कि विनष्ट श्लोकों में किसी मुनि कवि. का वर्णन था । यह मुनि कवि दाक्षीसुत पाणिनि था यह १५वें श्लोक में 'modify भूयोऽनु चकार तं वै' के पाठ से विदित होता है । पाणिनि का ती काव्य भारतीय वाङ्मय में बहुत्र उद्धृत है । उसके उपलब्ध पद्यों का संकलन पूर्व छठे परिशिष्ट में किया है ।
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