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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
(२६) शुद्धस्वभावान्यपि संहतानि
निनाय भेदं कुमुदानि चन्द्रः । अवाप्य वृद्धि मलिनान्तरात्मा
जडो भवेत् कस्य गुणाय वक्रः ॥' चन्द्रमा ने शुद्ध स्वभावयुक्त और मिलकर रहनेवाले कुमुदों में भेद डाल दिया (खिला दिया) भला जिसका पेट मैला हो जो जड़ (जलमय) और टेढा हो वह बढ़कर किसे निहाल करेगा ?
(२७) सरोरुहाणि निमीलयन्त्या रवौ गते साधुकृतं नलिन्या।
अक्षणां हि दृष्ट्वापि जगत् समग्न फलं प्रियालोकनमात्रमेव ॥ सूर्य अस्त हो गया । नलिनी ने कमलरूप नेत्र मूद लिए। बहुत अच्छा किया। प्रांखों से चाहे सब कुछ देखते रहें, परन्तु उनका फल तो प्रिय को देखना मात्र ही है न ?
(२८) करीन्द्रदर्पच्छिदुरं मृगेन्द्रम् । गजराजों के दर्प के दमनशील मृगराज को।
इन २८ उद्धरणों में संख्या १,२,३,४,२८ पं० चन्द्रधर गुलेरी द्वारा गहीत हैं। शेष पी० पिटर्सन द्वारा JRAS १८९१ (पृष्ठ ३१३२० ३१६) में प्रकाशित किये गए थे।
अब हम उन उद्धरणों को प्रकाशित करते हैं, जो अभी-अभी प्रकाश में आये हैं।
काफिरकोट के पास से पाकिस्तान के अधिकारियों को भामह के काव्यालङ्कार की टीका की एक जीर्ण प्रति उपलब्ध हुई है। यह २५ अभी प्रकाशित हुई है। उसके पृष्ठ ३४ के अन्त और पृष्ठ ३५ के
आदि में निम्न पाठ हैं
१. वहीं, नाम से। २. वहीं, नाम से।
३. भाषावृत्ति ३।२।१३२ में नाम से ।