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जाम्बवती-विजय के उपलब्ध श्लोक वा श्लोकांश ८६
(२३) निरीक्ष्य विद्युन्नयनैः पयोदो
मुखं निशायामभिसारिकायाः। धारानिपातैः सह किं नु वान्तश् चन्द्रोदयमित्याततरं ररास ॥
५ रात्रि में वादल ने बिजली की प्रांख से अभिसारिका का मुख देखा । देखकर उसे संदेह हया कि कहीं मैंने जलधाराओं के साथ चन्द्रमा को तो नहीं गिरा दिया है ? इस पर वह और भी अधिक कड़कने (रोने-पीटने) लगा।
(२४) प्रकाश्य लोकान् भगवान् स्वतेजसा
प्रभादरिद्रः सविताऽपि जायते । अहो चला. श्रीबलमानदा (?) महो
स्पशन्ति सर्वं हि दशाविपर्यये ॥' अपने तेज से सब लोकों को प्रकाशित करके सूर्य भी अन्त में १५ प्रभा से रहित हो जाता है । लक्ष्मी चञ्चल है, सभी को विपरीत काल में बल और मान को घटाने वाली दशा आ जाती है (मूल कुछ अस्पष्ट है)।
(२५) विलोक्य सङ्ग मे रागं पश्चिमाया विवस्वतः ।
कृतं कृष्णमुखं प्राच्या नहि नार्यों विनर्ण्यया ॥ सूर्य के संगम होने पर पश्चिम दिशा का राग (प्रेम-ललाई) देखकर पूर्व दिशा ने अपना मुह काला (अधिया रुवाना) कर लिया। भला कभी स्त्रियां ईारहित हो सकती हैं ?
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१. सुभाषितावली में, नाम से । कुवलयानन्द, अलङ्कार-कौस्तुभ, प्रतापरुद्र-यशोभूषण (टीका) में विना नाम के ।
२. सुभाषितावली में, नाम से। ३. वहीं, नाम से । शाङ्गधर पद्धति में 'कस्यापि'।