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दसवां परिशिष्ट
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पृष्ठ २५८, पं० २३ ‘अवश्य देखें' के आगे बढ़ायें-- 'जाम्बवती विजय के अद्य यावत् उपलब्ध वचनों का संग्रह हमने इसी ग्रन्थ के तृतीय भाग में ६ वें परिशिष्ट में पृष्ठ ८२-१२ तक किया है ।
पृष्ठ २७३, पं० १२ ‘गृह्य २।५' के स्थान में 'गृह्य २ ३' इस प्रकार शोधें ।
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पृष्ठ ३०३ में समुद्रगुप्त विरचित जिस कृष्णचरित के पद्यों को उदधृत किया है उस कृष्णचरित का उपलब्ध अंश हमने इस ग्रन्थ के तृतीय भाग में ७ वें परिशिष्ट में पृष्ठ १३ १०० तक छाप दिया है । पृष्ठ ३३६, पं० २१ के आगे निम्न सन्दर्भ बढ़ावेंक्या वार्त्तिककार पाणिनीय सूत्रों का खण्डन करता है ? वैयाकरणों का मत है कि बार्तिककार कात्यायन और महाभाष्यकार पतञ्जलि पाणिनि के अनेक सूत्रों वा सूत्रांशों का खण्डन करते हैं अर्थात् उनकी अनावश्यकता वा दुरुक्तता का निर्देश करते हैं । इसी दृष्टि से आधुनिक वैयाकरणों ने यथोत्तरमुनीनां प्रामाण्यम् ऐसा वचन भी घढ़ लिया है (द्रष्टव्य महाभाष्यप्रदीपोद्योत १५ ( ३।१।८० ) । यहां यह विचारणीय है कि वार्तिककार को ऐसे दूषित पाणिनीय व्याकरण पर वार्तिक रचने की क्या आवश्यकता थी ? क्यों नहीं उसने स्वतन्त्र निर्दोष व्याकरण का प्रवचन किया ? तथा यदि भाष्यकार भी पाणिनीय सूत्रों का खण्डन करता है या उनमें दोष दर्शाता तो उसके तत्राशक्यं वर्णेनाप्यनर्थकेन भवितुम् (महा० १|१|१) तथा सामर्थ्ययोगान्नहि किञ्चिदस्मिन् पश्यामि शास्त्रे यदनर्थकं स्यात् ( महा० ६।११७७ ) आदि वचनों का क्या अभिप्राय है ? हमारा विचार है कि वार्त्तिककार कात्यायन और भाष्यकार पतञ्जलि ने जिन सूत्रों वा सूत्रैकदेशों का प्रत्याख्यान किया है वहां उनका अभिप्राय उनमें दोष दर्शाकर खण्डन करने वा निरर्थकता दर्शाने का नहीं है, अपितु उनका अभिप्राय उस उस सूत्र अथवा सूत्रैकदेश के विना भी प्रकारान्तर से प्रयोग सिद्धि दर्शाना मात्र है । वार्त्तिककार और भाष्यकार के इस महान् प्रयत्न से उत्तरवर्ती व्याकरण- प्रवक्ता चन्द्राचार्य ने बहुत लाभ उठाया है । यही प्रयोजन महाभाष्य के टीकाकार शिवरामेन्द्र सरस्वती ने महा० १।१।४ सूत्र के व्याख्यान में दर्शाया है । ३० वह लिखता है -
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