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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
और पाणिनि के समय संस्कृतभाषा अत्यन्त अव्यवस्थित हो चुकी थी। सहस्रों प्राचीन प्रकृतियां (धातु वा प्रातिपादिक) उस समय तक लुप्त हो चुकी थीं, परन्तु उनसे निष्पन्न शब्द (यास्कीय व्यवहारानुसार 'विकार') पाणिनि के काल में लोक-व्यवहार में प्रचलित थे। इसी प्रकार सहस्रों प्रकृतिरूप मूल शब्द पाणिनि के समय में व्यवहृत थे, परन्तु उनसे निष्पन्न शब्दों का लोकभाषा में उच्छेद हो गया था। इसके साथ ही संस्कृतभाषा के सम्बन्ध में यह तथ्य भी ध्यान देने योग्य है कि यास्कादि के काल में देशभेद से कहीं प्रकृतियों का ही प्रयोग होता था, तो कहीं उनसे निष्पन्न शब्दों का ही।
इस विषय की संक्षिप्त परन्तु विशद मीमांसा हमने इस ग्रन्थ के प्रथमाध्याय में की है। उसका गम्भीरता से अध्ययन करने पर हमारे द्वारा यहां प्रकट किये गये तथ्य भले प्रकार विस्पष्ट हो जायेंगे ।
वैयाकरणों की कठिनाई जब किसी भाषा में से मूल प्रकृतियों का लोप (==व्यवहाराभाव) १५ हो जावे, परन्तु उससे निष्पन्न शब्दों का प्रयोग प्रचलित हो, तब
व्याकरण-प्रवक्ता के सन्मुख कितनी कठिनाई उत्पन्न होगी, यह किसी भी मनस्वी द्वारा गम्भीरता से सोचने पर स्वयं व्यक्त हो सकती है । व्याकरणशास्त्र के प्रवचन में अर्थ-सम्बन्ध का विशेष
ध्यान रखना पड़ता है। शब्दार्थ-सम्बन्ध के ज्ञान का मुख्य आधार २० लोकव्यवहार ही होता है । इस कारण व्याकरण-प्रवक्ता लुप्त प्रकृति
से निष्पन्न शब्दों के अन्वाख्यान में लुप्त प्रकृति का निर्देश करे, ता उसे उन लुप्त प्रकृतियों के अर्थ का भी निर्देश करना पड़ेगा। क्योंकि लोक में उनका व्यवहार न रहने से उन शब्दों और उनके अर्थों
को लौकिक जन नहीं जानते । यदि व्याकरण-प्रवक्ता लुप्त २५ प्रकृतियों से निष्पन्न शब्दों का अन्वाख्यान करने के लिये लोकप्रचलित
किसी शब्द का उपादान करले तो अर्थज्ञान तो हो जायगा, किन्तु प्रकृतिविकारभाव का यथावत् परिज्ञान नहीं होगा । ऐसा असम्बद्ध अन्वाख्यान यास्क के शब्दों में स्वर-संस्कार एवं प्रादेशिक विकार की दष्टि से अन्वन्वित होगा ।' लोप आगम आदेश आदि अप्रादेशिक
१. द्र०-अथान्वितेऽर्थे .........। सिरुक्त २१०३:२॥१॥