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________________ दूसरा परिशिष्ट पाणिनीय व्याकरण की वैज्ञानिक व्याख्या संक्षिप्त निदर्शन व्याकरण के सम्बन्ध में दो सिद्धान्त विद्वानों द्वारा प्रायः स्वीकृत ५ हैं। एक-व्याकरण का प्रयोजन स्वसमय में प्रयुज्यमान लोकभाषा के शिष्ट पुरुषों द्वारा प्रादत स्वरूप का ज्ञान कराना और लोक-सुलभअपभ्रंश की प्रवृत्ति को रोकना अथवा भाषा को अपभ्रष्ट प्रयोगों के सम्मिश्रण से बचाना । दूसरा-व्याकरण लोकव्यवहृत भाषा का निदर्शक मात्र होता है। चाहे कितना ही सूक्ष्म मेधावी वैयाकरण १० क्यों न हो और कितना ही विस्तृत व्याकरण क्यों न रचा जाये, व्याकरण शास्त्र भाषा को पूर्णतया कभी भी व्याप्त नहीं कर सकता। ये सिद्धान्त न्यूनाधिक रूप से सभी भाषा के व्याकरणों पर लागू होते हैं, तथापि अतिप्राचीन काल से चली आई अतिविपुल संस्कृत- १५ भाषा के व्याकरणों के सम्बन्ध में तो यह नितान्त सत्य है । संस्कृतभाषा के व्याकरणों के सम्बन्ध में उक्त सत्य तब अधिक प्रस्फुटित हो जाता है, जब संस्कृतभाषा के प्रसिद्धतम पाणिनीय व्याकरण के परिप्रेक्ष्य में प्राचीन तथा पाणिनीय काल की समीपवर्ती शिष्ट पुरुषों द्वारा व्यवहृत संस्कृत भाषा को देखते हैं। इसके साथ ही संस्कृतभाषा के सम्बन्ध में दो ऐतिहासिक तथ्य और ध्यान देने योग्य हैं। उनमें से एक है-उत्तरोत्तर मानव समाज में मतिमान्द्य आदि कारणों से लोक व्यवहृत संस्कृत भाषा में क्रमशः ह्रास होना और दूसरा अन्य समस्त शास्त्रीय वाङ्मय के समान व्याकरण शास्त्र के प्रवचन में भी उत्तरोत्तर संक्षेप होना।' प्रथम कारण अर्थात् संस्कृतभाषा में क्रमिक ह्रास होने से यास्क १. इन दोनों विषयों का उपपादन हमने इस ग्रन्थ के प्रथम अध्याय में किया है । पाठक उसे एक बार पुनः पढने का कष्ट करें। २०
SR No.002284
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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