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पाणिनीय व्याकरण की वैज्ञानिक व्याख्या १७ विकारों की कल्पना करनी पड़ेगी, और वह असम्बद्ध होने से अनादरणीय होगी।
जब संस्कृतभाषा के मेधावी साक्षात्कृतधर्मा वैयाकरणों के सन्मुख यह स्थिति उत्पन्न हुई, तो उन्होने अपनी प्रखर मेधा से इस समस्या का ऐसा समाधान ढ ढ निकाला कि उनके प्रवचन में उक्त समस्त ५ दोष न केवल निराकृत ही हो गये, अपितु उन्होंने अपने नियमों के द्वारा संस्कृतभाषा की विलुप्त सहस्रों प्रकृतियों (धातु वा प्रातिपदिकों)
और उनसे निष्पन्न होने वाले लक्षों शब्दों को उस काल तक सुरक्षित कर दिया, जब तक उनके द्वारा प्रोक्त व्याकरण-शास्त्र इस भूमि पर वर्तमान रहेंगे। संस्कृत व्याकरण-शास्त्र की इसी महत्ता को भट्ट १० कुमारिल ने निम्न शब्दों में प्रकट किया है___ 'यावांश्च प्रकृतको विनष्ट: शब्दराशिः, तस्य व्याकरणमेवैकम उपलक्षणम्, तदुपलक्षितरूपाणि च । तन्त्र-वार्तिक १।३।१२। पृष्ठ २६६ । __ अर्थात्-[संस्कृतभाषा का] जितना स्वाभाविक शब्दसमूह नष्ट १५ हो गया था, उसके उपलक्षक (=ज्ञान करानेवाले) एक मात्र व्याकरणशास्त्र के नियम वा तनिर्दिष्ट रूप हैं।'
व्याकरणशास्त्र के अर्वाचीन व्याख्याता संस्कृत-व्याकरण के प्रवक्ता मनीषियों ने उक्त दृष्टि से शास्त्रप्रवचन में जो चमत्कार प्रस्तुत किया था, वह कालक्रम से विलुप्त हो गया। इस कारण पाणिनोय व्याकरण के अर्वाचोन व्याख्याता विद्वानों ने स्वीय व्याख्यानों में उक्त तथ्य को भुलाकर जो व्याख्याएं लिखीं, उनमें उक्त चमत्कार सर्वथा लुप्त हो गया। और व्याकरण का प्रयोजन येन केन प्रकारेण शब्द-व्युत्पत्ति तक सीमित रह गया। इतना ही नहीं, इन व्याख्याकारों ने प्राचीन ऋषि-मुनि प्राचार्यों के २५
१. द्र०-ग्रयानन्वितेऽर्थे प्रादेशिक विकारे....."तदेतन्नोपपद्यते । निरुक्त १॥१३॥ न संस्कारमाद्रियेत विशयवत्यो हि वृत्तयो भवन्ति । निरुक्त २॥१॥
२. द्र०–सं० व्याकरणशास्त्र का इतिहास, भाग १, पृष्ठ ४५, टिप्पणी १ (च० सं०)।
३. द्र०-सं० व्याकरणशास्त्र का इतिहास, भाग १, पृष्ठ ४५, टिप्पणी २ (च० सं०) । 'सूत्रवार्तिकभाष्येष दृश्यते ३० चापशब्दनम् ।' तन्त्रवार्तिक, शाबर भाष्य, भाग, १, पृष्ठ २६०, पूना सं० ।