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ग्यारहवां परिशिष्ट
'सं० व्याकरण शास्त्र का इतिहास' के लेखन कार्य में विशिष्ट विद्वानों के सहयोगात्मक पत्र
प्रस्तुत 'सं० व्या० शा ०३०' के लिखने में तथा प्रथम संस्करण प्रका ५ शित होने के पश्चात् प्रनेक वरिष्ठ मान्य विद्वानों ने समय समय पर सुहृद्भाव से पत्रों द्वारा मुझे अनेक उपयोगी सुझाव दिये, अनेक ग्रन्थकारों
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विषय में नई सूचनाएं दीं, नये प्रमाण प्रस्तुत किये । यदि ये मान्य विद्वान् सुहृद्भाव से मुझे इस कार्य में सहयोग न देते तो निश्चय ही इस मैं अनेक त्रुटियां वा न्यूनताएं रह जातीं और इसका वर्तमान १० स्वरूप भी न होता । अतः इन सब महानुभावों ने समय-समय पर मुझे जो उपयोगी पत्र लिखे, उनमें से जो पत्र मेरे पास सुरक्षित हैं, उन्हें अपनी कृतज्ञता - प्रकाशन के लिए इस परिशिष्ट में मुद्रित कर रहा हूं। इसे मैं ऋषि तर्पण मानता हूं । अतः इस कार्य से मैं कुछ सीमा तक ऋषि ऋण से भी उन्मुक्त हो सकूंगा ।
स्व० श्री पं० भगवद्दत्त जी के पत्र
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'संस्कृत व्याकरण शास्त्र का इतिहास' लिखने की प्रेरणा स्व० श्री पूज्य पण्डित भगवद्दत्त जी ने संभवतः सं० १९९४ (सन् १९३७) में दी थी। उनकी प्रेरणा से मैं इस ग्रन्थ के लेखन में प्रवृत्त हुप्रा । प्रारम्भ से संस्कृत वाङ्मय के ग्रन्थों के स्वाध्याय में मेरी रुचि रही है। इस कारण मैं इससे पूर्व ही शतशः ग्रन्थों का पारायण कर चुका था । व्याकरण शास्त्र के इतिहास के लिये मैंने पूर्व पारायण किये ग्रन्थों का पुनः पारायण किया और शतशः मुद्रित वा लिखित ग्रन्थों का तथा विविध पुस्तकालयों में संगृहीत हस्तलेखों के उस समय तक छपे सूचीपत्रों का ४-५ वर्ष में विशेष अवलोकन किया। इस प्रकार सं०
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१६६६ तक लाहौर में रहते हुए इस ग्रन्थ के लिये उपयुक्त सामग्री का संकलन २५ कर चुका था । इस काल में प्रस्तुत इतिहास के लेखन स्व० श्री पण्डित