SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 146
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ दसवां परिशिष्ट १३५ यहां गार्ग्य गोपाल यज्वा ने दो भूलें की हैं-प्रथम- उसने प्रतिशाखा शब्द का मूल अर्थ न जानकर प्रातिशाख्य नाम के आधार पर उन्हें एक एक शाखा का मानकर दो तीन शाखाओं का एक प्रातिशाख्य होना स्वीकार किया। द्वितीय-ऋग्वेदीय शौनक प्रातिशाख्य को शाकलक और बाष्कलक दो शाखामों का स्वीकार किया । वस्तुतः ५ शाकल और बाष्कल दोनों पृथक् चरण हैं। प्रातिशाख्य एक एक चरण से सम्बद्ध शाखाओं के हैं, यह पूर्व (यही भाग, पृष्ठ ३६२) निरुक्तकार यास्क के वचन से प्रमाणित कर चुके हैं। ऐसी अवस्था में शाकल चरण से सम्बद्ध शौनकीय प्रातिशाख्य बाष्कल चरण से सम्बद्ध नहीं हो सकता। इतना ही नहीं, इसी भाग में आगे (पृष्ठ १० ३८३) बाष्कल प्रातिशाख्य का पृथक् सद्भाव प्रमाणित किया है। पृष्ठ ३८१, पं० २० 'पाश्वालायन शाखा' के स्थान में 'माश्वलायन चरण' इस प्रकार पाठ शुद्ध करें। पृष्ठ ३८२, पं० ३ 'अन्य काल' के स्थान में 'अन्य ग्रन्थ' इस प्रकार पाठ शोधे । पृष्ठ ३८३, पं० २४ से आगे नया सन्दर्भ बढ़ावें। 'पूर्व पृष्ठ ३६४, पं० ३१ के आगे बढ़ाये नये सन्दर्भ में लिख चुके हैं कि गार्य यज्वा गोपाल का शौनकीय प्रातिशाख्य को शाकल और बाष्कल दोनों शाखाओं का मानना भूल है। क्योंकि बाष्कल चरण शाकल चरण से पृथक् है । शाकल चरण का प्रातिशाख्य प्राप्त है, बाष्कल चरण के प्रातिशाख्य के पृथक् सद्भाव में ऊपर प्रमाण उपस्थित कर चके हैं।' पृष्ठ ४०६, पं० २० के आगे पुष्पसूत्र का नया संस्करण छप रहा है। उसके प्रकाशित होने पर सम्भव है पुष्पसूत्र के विषय में नया प्रकाश पड़े। . २५ पृष्ठ ४४१, पं० ७-८ 'भाषातत्व और वाक्यपदीय नामक ग्रन्थों में' इस के स्थान में 'भाषातत्त्व और वाक्यपदीय नामक ग्रन्थ में' पाठ होना चाहिये। १. द्र० पृष्ठ १३४ की टि० १।
SR No.002284
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy