________________
संस्कृत व्याकरण - शास्त्र का इतिहास
पृष्ठ ३५९, पं० १३ ' ६ - श्रीनिवास...' यहां अब '७ - श्रीनिवास पाठ होना चाहिये ।
...7
पृष्ठ ३५९, पं० २७ के आगे नया सन्दर्भ बढ़ावें -
अन्य स्वरशास्त्र व्याख्याता
१३४
श्रीनिवास यज्वा विरचित 'स्वरसिद्धान्त मञ्जरी' में स्वरकौमुदी, स्वरमञ्जरी और स्वरमञ्जरी विवरण नामक ग्रन्थों का असकृत् उल्लेख मिलता है । स्वरप्रक्रिया की भूमिका (इण्ट्रोडेक्शन) में काशीनाथ वासुदेव श्रभ्यङ्कर ने नृसिंह पण्डित विरचित स्वरसिद्धान्तमञ्जरी और विट्ठलेश विरचित स्वरप्रक्रिया का उल्लेख किया है । १० इनमें भी फिट्सूत्रों की व्याख्या सम्भव है, परन्तु इन ग्रन्थों के उपलब्ध न होने से हमने इनका साक्षात् उल्लेख नहीं किया हैं ।
...3.
पृष्ठ ३६३, पं० १९-२० ' अर्थात् - शाकल्य शिष्य निसृत जानो' के स्थान में इस प्रकार शोधें - शाकल्य बाष्कलि प्राश्वलायन आदि के शिष्यों द्वारा प्रोक्त अनुशाखात्रों को प्रतिशाखा से निसृत १५ जानो ।'
पृष्ठ ३६४, पं० ३१ के आगे नया सन्दर्भ बढ़ावें -
गाय गोपाल यज्वा की भूल - तैत्तिरीय प्रातिशाख्य ४|११ की व्याख्या में गार्ग्य गापाल यज्वा भी ऐसी ही भूल करता है -
नन्वेवमनेकशाखाविषयत्वे प्रातिशाख्यमिति ग्रन्थस्याख्या विरुद्ध्यते । नैतदस्ति । द्वित्रिशाखाविषयत्वेऽपि तदसाधारणतया उपपत्तेः । तथा बवृचानां शाकलकबाष्कल कशा खाद्वय विषयं प्रातिशाख्यं
२०
प्रसिद्धम् ।
अर्थात् - इस प्रकार प्रातिशाख्य के अनेक शाखा विषयक होने से ग्रन्थ की प्रातिशाख्य संज्ञा विरुद्ध होतीं है । ऐसा नहीं है । दो तीन २५ शाखा विषयक होने पर भी वह श्राख्या असाधारण होने से उपपन्न होती है। ऋग्वेदियों का शाकलक और बाष्कलक दो शाखाओं का प्रातिशाख्य प्रसिद्ध है ।
१. एतेषां शाखा पञ्चविधा भवन्ति - शाकलाः, बाष्कलाः, आश्वलायनाः, शांखायनाः, माण्डूक्रेयाश्च (वै० वाङमय का इतिहास, भाग १, पृष्ठ १८३, ३०. - द्वि० सं०, सं० २०१३) । तुलना करो - ऋग्वेदीय शौनक चरणव्यूह १।७ - ८ ||