________________
३/४
पाणिनीय व्याकरण की वैज्ञानिक व्याख्या
२५
मानी जाती हैं। यथा-यज के इष्टि इज्यते आदि में 'इज' रूप, वच के उक्ति उच्यते आदि में 'उच' रूप और प्रथ के पृथ पृथिवी आदि में 'पृथ' रूप । इस विषय में निरुक्तकार यास्क लिखते हैं
तद यत्र स्वरादनन्तरान्तस्यान्तर्धातर्भवति तद द्विप्रकृतियां स्थानमिति प्रदिशन्ति । तत्र सिद्धायामनुपपद्यमानायामितिरयोपपिपादयि- ५ षेत् । निरुक्त २।२॥ ___ अर्थात्-स्वर से [पूर्व वा पर] अव्यवहित अन्तस्य वर्णवाली धातु होती है उसे दो प्रकृतियों से निष्पन्न होने वाले शब्दों का स्थान माना जाता है। अतः यदि सिद्ध-लोक प्रसिद्ध रूप प्रकृति से शब्द की उपपत्ति न होवे तो इतर=कृतसंप्रसारणरूप प्रकृति से निष्पन्न १० करने की इच्छा करे।
इसके उदाहरण वहीं निरुक्त में दिये-अब ऊ से ऊति, म्रद = मृद से मृदु, प्रथ=पृथ से पृथु आदि । इस विषय में भर्तृहरि ने वाक्यपदीय २।१७६ में कहा है
भिन्नाविजियजी धातू नियतौ विषयान्तरे ।
कैश्चित् कथंचिदुपदिष्टौ चित्रं हि प्रतिपादनम् । अर्थात् -इज और यज दो धातु हैं, ये विषयान्तरे में नियत है [यथा कित प्रत्ययों में कृतसंप्रसारणरूप इज और अन्यत्र यज] । किन्हीं प्राचार्यों के किसी प्रकार से उपदेश किया है। प्राचार्यों का प्रतिपादन विचित्र है [यथा स भुवि प्रापिशलि ने थातु पढ़ी है और २० प्रस् भुवि पाणिनि ने] ।
इस कारिका की भर्तृहरि की स्वोपज्ञ व्याख्या भी द्रष्टव्य है।
घ-वर्णविपर्ययरूप धात्वन्तर-वैयाकरण तथा नरुक्त सिंह आदि शब्दों का निर्वचन हिंस (हिसि हिंसायाम) धातू में प्राद्यन्त-विषर्यय करके दर्शाते हैं । यथा-कृतेस्तकः, कसेः, सिकताः, हिसेः सिंहः २५ (महा० ३।१।१२३); सिंहः सहनात्, हिसेर्वा स्याद् विपरीतस्य (निरु० ३.१८) । इस प्रकार वर्णविपर्यय करने पर धातु का जो रूप निष्पन्न होता है, वह स्वतन्त्र माना जाता है । अतएव काशकृत्स्न धातूपाठ में "हिंस' से 'सिंह' का अन्वाख्यान न करके षिहि (=सिंह) हिंसागत्योः (धातुसूत्र ११३१६) रूप स्वतन्त्र सिंह धातु से सिंह पद ३० का अम्बाख्यान किया है।