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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास ख-प्रादेशरूप धात्वन्तर-वैयाकरणों ने अनेक स्थानों पर धातुओं के स्थान में आदेशों का विधान किया है। यथा-पाघ्राध्मास्था आदि के स्थान में शित् प्रत्यय परे पिब जिघ्र धम तिष्ठ आदि आदेश (द्र०-० ७।३।७८) । इनमें आदेशरूप से पठित शब्द स्वतन्त्र धात्वन्नर हैं । उदाहरणार्थ-5मा को धम आदेश । निरुक्त १०.३१ में मधुर्धनतेविपरीतस्य तथा उणादिसूत्र अतिसृवृधम्यम्यशिभ्योऽनि: (उ० २७५) में 'धम' का स्वतन्त्र धातुरूप में प्रयोग किया है । क्षीरस्वामी ने 'ध्मा' धातु (क्षीरत० ११६५६) के व्याख्यान में लिखा है-धमिः प्रकृत्यन्तरमित्येके । यथा-धान्तो धातुः पाव. कस्यैव राशिः । रामायण किष्किन्धाकाण्ड (६७।१२) में स्वतन्त्र धातु के रूप में लुट् लकार में प्रयोग मिलता है-विमिष्यामि जोमूतान् । __इसी प्रकार प्रश्नोते रश च (उ० २७५) में आदेशरूप से निर्दिष्ट रश भी स्वतन्त्र धातु है । महाभाष्यकार कहते हैं-रशिरस्मायाविशेषेणोपदिष्टः । स राशिः रशना इत्येवं विषयः (महा. ७।१।९६)।
ग-वर्णविकार से निष्पन्न धात्वन्तर-वैयाकरण जिन धातुओं में वर्णविकार करके शब्द की सिद्धि करते हैं, वहां उपादीयमान धातु में वर्णविकार कर लेने पर जो रूप निष्पन्न होता है, वह धात्वन्तर माना जाता है । यथा
१-वैदिक 'गृभ्णाति' प्रयोग के लिये वैयाकरण हुग्रहो भश्छन्दसि हस्य (अ० ८।२।३२) वार्तिक द्वारा 'ग्रह' धातु के हकार को भकार
और सम्प्रसारण करके 'गृभ' रूप बनाते हैं । निरुक्तकार यास्क ने गर्भो गभेः (नि० १०।२३) निर्वचन में 'गृभ' धातु को स्वतन्त्र धातु मानकर गृभ से गर्भ का निर्वचन दर्शाया है । इसी प्रकार ग्रह धातु
को सम्प्रसारण करने पर जो 'गृह' रूप बनता है, उसे न्यायसंग्रह पृष्ठ २५ १४६ में स्वतन्त्र धातु माना है।
२. जिन धातुओं को कित् ङित् प्रत्यय परे रहने पर धातुगत यकार वकार और रेफ के स्थान में क्रमशः इकार उकार ऋकार रूप सम्प्रसारण होता है, वे कृत-संप्रसारणरूप धातुएं स्वतन्त्र प्रकृतियां
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१. यह हैम ब्याकरण से सम्बद्ध परिभाषामों का हेमहंसगणिविरचित ३० व्याख्या ग्रन्थ है।