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________________ पाणिनीय व्याकरण की वैज्ञानिक व्याख्या २३ यही बात भर्तृहरि ने इस प्रकार कही हैअर्थान्तरे च यवृत्तं तत्प्रकृत्यन्तरं विदुः । अर्थात्- जो शब्द (=धातु वा प्रातिपदिक] अर्थान्तर (= विषयान्तर) में नियत हैं । उन्हें प्रकृत्यन्तर जानना चाहिये । अब हम क्रमशः एक-एक विषय को प्रकट करने के लिये एक-एक ५ दो-दो सूत्रों वा वचनों की व्याख्या प्रस्तुत करते हैं प्रकृत्यन्तर-सद्भाव का निरूपण १-सूत्र वातिक आदि के द्वारा जहां-जहां धातु वा प्रातिपदिकरूप प्रकृति को आगम आदेश लोप वर्णविकार आदि का विधान किया है, वहां-वहां प्रकृति में उस-उस कार्य को सम्पन्न कर लेने पर प्रकृति का १० जो रूप निष्पन्न होता है, उसे महाभाष्यकार पतञ्जलि तथा अन्य व्याख्याताओं ने स्वतन्त्र प्रकृति मानकर आगम आदि विधान को प्रवक्तव्य माना है। क-आगमसंयुक्त धात्वन्तर-वातिककार कात्यायन ने नयते षुक च (अ० ३।२।१३५) वार्तिक द्वारा तृन् प्रत्यय परे 'नी' को 'षक' १५ (ए) का अागम करके नेष्टा रूप बनाया है। इस पर भाष्यकार कहते हैं 'न वा वक्तव्यम् । किं कारणम् ? धात्वन्तरं नेषतिः । कथं ज्ञायते ? नेषतु नेष्टात् इति हि प्रयोगो दृश्यते । इन्द्रो वस्तेन नेषतु, गावो नेष्टात् ।' २० अर्थात्-'नी' से षुक पागम का विधान नहीं करना चाहिये। क्या कारण है ? 'निष' घात्वन्तर है। कैसे जाना जाता है कि 'निष' धात्वन्तर है ? नेषतु नेष्टात् प्रयोग देखे जाते हैं, अर्थात् जहां षुक के आगम का विधान नहीं किया, वहां भी विशिष्ट का प्रयोग देखा जाता है । अतः निष् स्वतन्त्र धात्वन्तर हैं। उसी से विना षुक् आगम २५ के भी नेष्ट्रा रूप उपपन्न हो जायेगा। ___ काशिकाकार ने (३।१।८५) इन्द्रो वस्तेन नेषतु' सिप' और 'श' दो विकरणों की कल्पना की है। निष धात्वन्त र स्वीकार करने पर दो विकरणों की कल्पना की आवश्यकता ही नहीं रहती।
SR No.002284
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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