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संस्कृत व्याकरण का इतिहास
३ - गण कार्य का उपलक्षणत्व व्यक्त करना ।
४ - पाणिनीय नियमों से प्रसिद्ध पाणिनीय प्रयोग द्वारा विवित्र नियमान्तरों की कल्पना, अथवा उक्त नियमों का प्रायिकत्व द्योतित
करना । यथा -
(क) सन्धि - नियम
(ख) विभक्ति - नियम
(ग) लिङ्ग-नियम (घ) समास- नियम
५ - प्रयोक्ता के अभिप्राय का अन्य प्रकार से ज्ञापन होने पर तद् विशेष वाचक अंश के प्रयोग की प्रविवक्षा-उक्तार्थानामप्रयोगः । प्रकृत्यन्तर कल्पना का नियम
महाभाष्यकार ने प्रकृत्यन्तर कल्पना का एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण - नियम भी लिखा है । वे लिखते हैं
'कथमुपबर्हणम् ? बृहिः प्रकृत्यन्तरम् । कथं ज्ञायते बृहिः प्रकृत्यन्तरमिति ? श्रचीति हि लोप उच्यते श्रनजादावपि दृश्यतेनिबृह्यते । प्रनिटीति चोच्यते, इडादावपि दृश्यते - निबहता, १५ निर्बाहम् इति । श्रजादावपि न दृश्यते - बृहयति, बृहकः इति । महा० १|१|४|| अर्थात् - [ यदि सूत्र के विषय का परिगणन नहीं करते, तो ] 'उपबर्हण' [ में नुम् का लोप होने पर गुण का प्रभाव ] कैसे उपपन्न होगा ? 'बृह' ( = नुम् रहित ) प्रकृत्यन्तर है । कैसे जाना जाता है २० [ कि बृह प्रकृत्यन्तर है ] ? अजादि प्रत्यय परे रहने पर [ बृहेरच्यनिटि ( ० ६।४।२४ ) वार्तिक से नुम् का ] लोप कहा है, वह हलादि प्रत्यय परे भी देखा जाता है - निबृह्यते । इडादि प्रत्यय परे [ नुम्लोप का ] निषेध कहा है, पर इडादि प्रत्यय परे [ नुम् का लोप ] देखा जाता है - निबर्हता, निर्बाहतुम् । अजादि प्रत्यय परे [ नुम् लोप २५ का विधान होने पर भी लोप ] नहीं देखा जाता है - बृहत बृहकः ।
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१. इसके अन्तर्गत विकरण इट्-अनिट् ग्रात्मनेपद - परस्मैपद आदि विधियों प्रातिपदिकगण संबन्धी समस्त कार्यों का संग्रह समझना चाहिए ।
२. महाभाष्य १ | १ | ४४ ॥ १।२२५१ || २|१|१|| ३|१|७|| ४|१|३ ॥ ३० ५२६४ ॥ २८३ ॥