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पाणिनीय व्याकरण की वैज्ञानिक व्याख्या
प्रत्यय परे होने पर समानरूप से धातु को वृद्धि होती है । इसी प्रकार तद्वित ञित् णित् कित् प्रत्यय परे आद्यच् को वृद्धि होती है । जो विकार सामान्य रूप से सर्वत्र होते हैं, उन्हें यास्क के शब्दों में प्रादेशिक एवं श्रन्वितसंस्कार कहा जाता है ।' दूसरी प्रक्रिया वह है - जिस में किसी धातु वा प्रातिपदिकविशेष में लोप आगम वर्णविकार वा आदेशादि करके शब्दस्वरूप का अन्वाख्यान किया जाता है । जैसे— हत: घ्नन्ति दीयते पिबति श्रादि । इसे यास्क के शब्दों में अनन्वित संस्कार कहा जाता है । तीसरी प्रक्रिया वह है - जिसमें से एक से अधिक असामान्य कार्यं होते हैं । इसे निपातन प्रक्रिया कहा जाता
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है । जैसे - निष्टवर्य पाणिन्धमः हैयंगवीनम् । इसे यास्क के शब्दों में १० अनन्वित संस्कार और अप्रादेशिक विकार माना जाता है ।
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हमारी प्रस्तुत सूत्र - व्याख्या का सम्बन्ध विशेषरूप से द्वितीय प्रक्रिया के साथ, और कुछ सीमा तक तृतीय प्रक्रिया के साथ है। इस लिए इस विशिष्ट व्याख्या के निदर्शनार्थ इसी प्रकार के सूत्र उपस्थित किये जायेंगे। हमने जहां तक शास्त्रकारों की विविध प्रक्रिया पर १५ विचार किया है, उसके अनुसार हम कह सकते हैं कि शास्त्रकारों ने द्वितीय तृतीय प्रक्रिया का प्राश्रयण प्रायः वहीं किया है, जहां घातु वा प्रातिपदिक रूप मूल प्रकृति का लोप हो गया था, परन्तु उनसे निष्पन्न शब्द उनके काल में विद्यमान थे ।
प्रस्तुत व्याख्या का आधार
पाणिनीय सूत्रों की जिस व्याख्या को हम प्रस्तुत कर रहे हैं, वह हमारी कल्पना नहीं है, अपितु व्याकरणशास्त्र के प्रामाणिक प्राचार्य महामुनि पतञ्जलि और उत्तरवर्ती कतिपय प्राचीन व्याख्याकारों के प्रत्यक्ष व्याख्यानों पर प्रवृत है । प्रस्तुत व्याख्या के व्यापक विषय को हम स्थूल रूप से निम्न विभागों में बांट सकते हैं
१ - प्रकृतिविभाग से संबद्ध लोप श्रागम प्रदेश वर्णविकार आदि के निर्देश द्वारा प्रकृत्यन्तर सद्भाव को द्योतित करना ।
२ - प्रत्ययभाग से संबद्ध लोप श्रागम प्रादेश वर्णविकार आदि के द्वारा प्रत्ययान्तर सद्भाव को प्रकट करना ।
१, इसी भाग का पृष्ठ १६, टि० १ ।
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