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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
-' पृणति' 'मृणति' ये रूप पृण मृण घात्वन्तर के हैं- धात्वन्तरं पूणिमृणी | महा० ३|१|७८ ॥
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धातुगत प्रागम श्रादेश वर्णविकार के करने पर जो रूप निष्पन्न होता है, वह स्वतन्त्र घात्वन्तर है । इस विषय में हमने कतिपय प्रमाण दर्शाये हैं ।
च - हेमन् - हेमन्त के तकार का लोपरूप । द्र० - महा० ४।३।२२।। छ –त्मन्-प्रात्मन् के आकार का लोप 'टा' तृतीयैकवचन में कहा है - मन्त्रेष्वाङयादेरात्मनः ( ० ६ । ४ । १४१ ) | वेद में तृतीयैकवचन से अन्यत्र भी 'त्मन् ' स्वतन्त्र प्रकृति के रूप देखे जाते हैं । यथा- - त्मन् ( ऋ० ४|४|१ इत्यादि), त्मनम् (ऋ० ११६३१८ ), त्मनि ( ऋ० १ | १५८।४ इत्यादि), त्मने ( ऋ० १|११४१६ इत्यादि), त्मन्या ( ऋ० १ | १५ १८८ । १० इत्यादि) ।
अब हम कतिपय उन प्रातिपदिकरूप प्रकृत्यन्तरों का निर्देश करते हैं, जहां शास्त्रकारों ने लोपागम वर्णविकार प्रदेश आदि कहा है, पर उनसे निष्पन्न रूप प्रकृत्यन्तर माने जाते हैं ।
ज - सुधातक, व्यासक, वरुडक, निषादक, चण्डालक, बिम्बकसुधातृ आदि में अकङ प्रदेश से निष्पन्न ये रूप प्रकृत्यन्त रहैं । द्र०महा० ४।१।६७॥
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झ - पीतक - कन् प्रत्यय सहित के रूप में, बिना कन् प्रत्यय के ० ४।२।२।।
महः ०
ञ - तैल - विकारार्थं प्रत्ययान्त के रूप में, विना विकारार्थ प्रत्यय के । महा०
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ट - शीर्षन् - प्रदेश रूप में निर्दिष्ट विना प्रवेश के । महा० ६ ।
१।१० ॥
ठ - सपत्न - स्त्रीलिङ्ग में विहित नकारादेश के विना । महा० ६|३|३५||
धातु और प्रातिपदिक विषयक प्रकृत्यन्तर- कल्पना के कुछ निदर्शन उपस्थित करके अब हम अष्टाध्यायी के कतिपय सूत्रों की इसी भाषाविज्ञानिक दृष्टि से व्याख्या उपस्थित करते हैं । जिससे पाणिनीय व्याकरण की भाषाविज्ञानिक व्याख्या का स्वरूप समझने में सुकरता होगी ।
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