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________________ ५ २० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास -' पृणति' 'मृणति' ये रूप पृण मृण घात्वन्तर के हैं- धात्वन्तरं पूणिमृणी | महा० ३|१|७८ ॥ २५ २६ ड. - 15 धातुगत प्रागम श्रादेश वर्णविकार के करने पर जो रूप निष्पन्न होता है, वह स्वतन्त्र घात्वन्तर है । इस विषय में हमने कतिपय प्रमाण दर्शाये हैं । च - हेमन् - हेमन्त के तकार का लोपरूप । द्र० - महा० ४।३।२२।। छ –त्मन्-प्रात्मन् के आकार का लोप 'टा' तृतीयैकवचन में कहा है - मन्त्रेष्वाङयादेरात्मनः ( ० ६ । ४ । १४१ ) | वेद में तृतीयैकवचन से अन्यत्र भी 'त्मन् ' स्वतन्त्र प्रकृति के रूप देखे जाते हैं । यथा- - त्मन् ( ऋ० ४|४|१ इत्यादि), त्मनम् (ऋ० ११६३१८ ), त्मनि ( ऋ० १ | १५८।४ इत्यादि), त्मने ( ऋ० १|११४१६ इत्यादि), त्मन्या ( ऋ० १ | १५ १८८ । १० इत्यादि) । अब हम कतिपय उन प्रातिपदिकरूप प्रकृत्यन्तरों का निर्देश करते हैं, जहां शास्त्रकारों ने लोपागम वर्णविकार प्रदेश आदि कहा है, पर उनसे निष्पन्न रूप प्रकृत्यन्तर माने जाते हैं । ज - सुधातक, व्यासक, वरुडक, निषादक, चण्डालक, बिम्बकसुधातृ आदि में अकङ प्रदेश से निष्पन्न ये रूप प्रकृत्यन्त रहैं । द्र०महा० ४।१।६७॥ 1 झ - पीतक - कन् प्रत्यय सहित के रूप में, बिना कन् प्रत्यय के ० ४।२।२।। महः ० ञ - तैल - विकारार्थं प्रत्ययान्त के रूप में, विना विकारार्थ प्रत्यय के । महा० २२|| ट - शीर्षन् - प्रदेश रूप में निर्दिष्ट विना प्रवेश के । महा० ६ । १।१० ॥ ठ - सपत्न - स्त्रीलिङ्ग में विहित नकारादेश के विना । महा० ६|३|३५|| धातु और प्रातिपदिक विषयक प्रकृत्यन्तर- कल्पना के कुछ निदर्शन उपस्थित करके अब हम अष्टाध्यायी के कतिपय सूत्रों की इसी भाषाविज्ञानिक दृष्टि से व्याख्या उपस्थित करते हैं । जिससे पाणिनीय व्याकरण की भाषाविज्ञानिक व्याख्या का स्वरूप समझने में सुकरता होगी । ३०
SR No.002284
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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