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आत्म-परिचय
स्थानीय (मण्डलेश्वर की) पाठशाला में प्रविष्ट किया। इस अवधि में मेरे एक भाई और एक बहन हुई। पर वे दोनों अकाल में ही कालकवलित हो गये। माता-पिता ने उपनयनोचित (आठ वर्ष की) अवस्था में मुझे गुरुकुल भेजने का निश्चय कर लिया था और आठवें वर्ष के मध्य में गुरुकुल कांगड़ी (हरद्वार) से मुझे प्रविष्ट करने की अनुमति भी प्राप्त कर ली थी, परन्तु विधाता को यह स्वीकार न था । अतः कुछ समय पूर्व ही मेरी माता का स्वर्गवास हो गया। इस कारण पिताजी ढाई तीन वर्ष अन्यमनस्क रहे। मुझे तत्काल गुरुकुल में अध्ययनार्थ न भेज सके ।
१९२१ में महात्मा गान्धी का असहयोग आन्दोलन चल रहा था। अमतसर के जलियांवाला बाग का नरमेध हो चुका था। उन दिनों देशोद्धारक स्वामी दयानन्द सरस्वती के सभी अनुयायी प्रत्यक्ष वा अप्रत्यक्ष रूप से स्वतन्त्रता-संग्राम में बढ़ चढ़ कर भाग ले रहे थे। अतः पिताजी ने भी महात्मा गान्धी के 'स्कल कालेज छोडो आदेश के अनुसार मुझे राजकीय पाठशाला से उठाकर पूर्व संकल्पानुसार ब्राह्मणोचित वेद-वेदाङ्ग के अध्ययनार्थ गुरुकुल भेजने का विचार किया । अवस्था अधिक हो जाने के कारण गुरुकुल कांगड़ी में मुझे प्रवेश नहीं मिला। अतः उस समय सान्ताक ज बम्बई में चल रहे गुरुकुल में मुझे भेजा । उस समय मैं प्राइमरी उतीर्ण कर पाचवीं में पढ़ रहा था। मराठी और गुजराती भाषा का भी मुझे परिज्ञान था। अतः मैं उस समय प्रविष्ट होने वाले ३५ ब्रह्मचारियों में बौद्धिक परीक्षा में सर्वप्रथम आया। यहां भी प्रवेश पाना विधाता को स्वीकार न था । जन्मजात पैरों की विकृति के कारण शारीरिक परीक्षा में डाक्टर ने अनुतीर्ण कर दिया। अतः स्वामी दयानन्द के अनुयायो होते हए भी वेदपाठी ब्राह्मण बनाने की अदम्य इच्छा के कारण सनातन धर्म के ऋषिकुल (हरद्वार) में प्रविष्ट कराने का विचार किया और पत्र-व्यवहार करके अनुमति प्राप्त कर ली।
दैव-गति विचित्र होती हैं । उसे मानव कभी जान नहीं सकता। विधाता के प्रत्येक कार्य में मानव का हित निहित होता है। इसी के अनुरूप ऋषिकुल में प्रविष्ट कराने से पूर्व ही आर्यप्रतिनिधि सभा उत्तरप्रदेश के 'पार्यमित्र' (साप्ताहिक) में स्वामी सर्वदानन्द जी के