________________
२० संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास में, अपितु संसार की किसी भी भाषा में संस्कृत व्याकरण-शास्त्र के . इतिहास पर इतना विस्तृत ग्रन्थ प्रकाशित नहीं हुआ।
प्रथम संस्करण (उत्तरप्रदेश सरकार से पुरस्कृत) सन १९५१ द्वितीय परिवर्धित संस्करण (१५० पृष्ठ बढ़े) सन १९६३ तृतीय , , (५० पृष्ठ बढ़े) सन १९७३ चतुर्थ , , (८४ पृष्ठ बढ़) सन १९८४
२. संस्कृत व्याकरणशास्त्र का इतिहास (भाग २)-इसमें व्याकरणशास्त्र के परिशिष्टरूप धातुपाठ उणादिसूत्र लिङ्गानुशासन परिभाषापाठ और फिटसूत्रों के प्रवक्ताओं और व्याख्यातायो का इतिवृत लिखा गया है । अन्त में प्रातिशाख्यों के प्रवक्ता और व्याख्याता, व्याकरण शास्त्र के दार्शनिक ग्रन्थकार तथा व्याकरणप्रधान लक्ष्यात्मक काव्यग्रन्थों के रचयिताओं का इतिहास भी दे दिया है। प्रथम संस्करण
सन् १९६२ द्वितीय परिवधित संस्करण (५८ पृष्ठ बढ़े) सन् १९७३
तृतीय , , (३३ पृष्ठ बढ़े) सन् १९८४ ३. संस्कृत व्याकरणशास्त्र का इतिहास (भाग ३)-इसमें अवशिष्ट विषय तथा अनेक परिशिष्ट तथा सूचियां आदि दी हैं। प्रथम संस्करण
सन् १९७३ परिवर्धित संस्करण (१०८ पृष्ठ बढ़े) सन् १९८५ ४. वैदिक-स्वर-मीमांसा-इसमें वैदिक ग्रन्थों में प्रयुक्त उदात्त अनुदात्त स्वरित आदि स्वरों का वाक्यार्थ के साथ क्या संबन्ध है, स्वर-परिवर्तन से अर्थ में किस प्रकार परिवर्तन होता है, स्वर-शास्त्र की उपेक्षा से वेदार्थ में कैसी भयंकर भूलें होती हैं, इत्यादि अनेक विषयों का सोपपत्तिक सोदाहरण प्रतिपादन किया है । अन्त में वैदिक उदात्तादि स्वरों के विभिन्न प्रकार के संकेतों स्वरचिह्नों की सोदाहरण व्याख्या की है। परिशिष्ट में मन्त्र-संहिता पाठ से पदपाठ में परिवर्तन के नियमों की सोदाहरण विवेचना की है। द्वितीय संस्करण में पाणिनीय व्याकरण के अनुसार स्वर विषय का संक्षेप से ज्ञान कराने के लिये स्वामी दयानन्द सरस्वती कृत 'सौवर' ग्रन्थ भी अन्त में जोड़ दिया है।