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जाम्बवती- विजय के उपलब्ध श्लोक वा श्लोकांश
(१७) चञ्चत्पक्षाभिघातं ज्वलितहुत प्रौढधाम्नश्चितायाः कोडाद व्याकृष्टमूर्तेरहमहमिकया चण्डचञ्चुग्रहेण । सद्यस्तप्तं शवस्य ज्वलंदिव पिशितं भूरि जग्ध्वार्धदग्धम् पश्यान्तः प्लुष्यमाणः प्रविशति सलिलं सत्त्वरं गृद्धवृद्धः ॥ ' चिता धधक रही है । प्रधजले मुर्दे का मांस झपटने के लिए गधों की होड़ाहोड़ी हुई। एक बुड्ढे गीध ने औरों को डैनों की मार से भगा दिया, और चोंच से पकड़कर मांस खींच लिया । वह जल्दी 'बहुत सा जलता हुआ मांस खागया और भीतर जलने लगा, दौड़कर ठण्डक के लिये पानी में घुस रहा है ।
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- पाणी शोणतले तनूरि सूक्ष्माभा कपोलस्थली विन्यस्ताञ्जन दिग्धलोचनजलैः किं म्लानिमानीयते । मुग्धे चुम्बतु नाम चञ्चलतया भृङ्गः क्वचित् कन्दलीम् उन्मीलन्नवमालतीपरिमलः किं तेन विस्मार्यते ॥
सखी खण्डिता नायिका से कहती है- कृशोदरि ! लाल हथेलियों पर कृश कपोल को रखकर काजलवाले प्रांसुत्रों से उसे क्यों म्लान कर रही हो ? भोली ! भौंरा चञ्चलता से कहीं जाकर कन्दली को भले ही खावे, किन्तु क्या इससे वह नई खिली मालती के सुवास को कभी भूल सकता है ?
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मुखानि चारूणि घनाः पयोधराः नितम्बपृथ्व्यो जघनोत्तमश्रियः ।
तनू नि मध्यानि च यस्य सोऽभ्यगात्
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कथं नृपाणां द्रविडीजनो हृदः ॥
जिनके सुन्दर मुख, घने स्तन, भारी नितम्ब, उत्तम जघन, श्रौर
९. सदुक्तिकर्णामृत में नाम से ।
२. वहीं, नाम से; कवीन्द्र वचन - समुच्चय में विना नाम के ३. वहीं, नाम से ।
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