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संस्कत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
पयः पृषन्तिभिः स्पृष्टा ला (वा ?) न्ति वाताः शनैः-शनैः ।' पानी के फुहारों से छुई हुई वायु धीरे-धीरे बह रही है।
(८) स सृक्किणीप्रान्तमसृक्प्रदिग्ध प्रलेलिहानो हरिणारिरुच्चकैः ।' लोहू लगे हुए होठों के कोनों को पुनः-पुनः चाटता हुआ वह सिंह जोर से।
हरिणा सह सख्यं ते बोभूत्विति यदब्रवीः ।
न जाघटीति युक्तौ तत् सिंहद्विरदयोरिव ॥' जो तूने यह कहा है कि हरि के साथ तेरी मित्रता हो, तो यह युक्ति में संघटित नहीं होता, जैसे कि सिंह और हाथी की मित्रता।
(१०) गतेऽर्धरात्रे परिमन्दमन्दं गर्जन्ति यत्प्रावषि कालमेघाः।
अपश्यती वत्समिवेन्दुबिम्बं तच्छर्वरी गौरिव हुंकरोति ।' पावस में आधी रात बीत जाने पर मेघ धीरे-धीरे गरजते हैं, मानो रात गौ है, चन्द्रमा उसका बछड़ा है । बछड़े को (वादलों में छिपे हुए चांद को) न देखकर रात्रि रूपी गौ रंभा रही है।
१. अमरकोश-पदचन्द्रिका टीका (रायमुकुट)–'इति जाम्बवती विजय२० वाक्यम् ।' अमर १।१०।६ में 'पृषत् शब्द जलबिन्दु के लिये नपुंसक लिङ्ग
दिया है । पाणिनि ने स्त्रीलिङ्ग ह्रस्व इकारान्त 'पृषन्ति' का प्रयोग किया है। यहां केवल काव्य का नाम है, कवि का नाम नहीं।
२. वही, अमरकोश २१६९१ में होठों के कोनों के लिये 'सृक्वन्' पद नपुंसकलिङ्ग दिया है। पाणिनि ने ईकारान्त स्त्रीलिङ्ग का व्यवहार किया है। २५ अाफेक्ट ने हलायुध की रत्नमाला की सूची में भी इसका उल्लेख किया है। .
३. रामनाथ की कातन्त्र धातुवृत्ति, भाषावृत्ति २।४।७४ – 'इति पाणिने. र्जाम्बवतीविजय काव्यम् ।' भाषावृत्ति में 'संख्य' (=लड़ाई) पाठ है।
४. नमि साधु कृत रुद्रट काव्यालंकार टीका-'तस्यैव कवेः'। 'अपश्यती' के स्थान में 'अपश्यन्ती' होना चाहिये ।