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________________ जाम्बवती - विजय के उपलब्ध श्लोक वा श्लोकांश ८३ पश्चिम दिशा में सागर की लहरों से बरफीले पहाड़ की कोख में प्राचीन और प्रसिद्ध 'द्वारका' नामक महापुरी थी । (२) अनेन यात्रानुचितं धराधरैः पुरातनं साजलनं ( ? ) महीक्षिताम् । ददर्श सेतु महतो जरन्तया ( ? ) विशीर्णसीमन्त इवोदय ( ? क) श्रिया ॥' पाठ अशुद्ध है । ठीक अर्थ समझ नहीं पड़ता । (३) त्वया सहाजितं यच्च यच्च सख्यं पुरातनम् । चिराय चेतसि पुनस्तरुणीकृतमद्य मे ॥ २ ..जो मित्रता मैंने तेरे साथ सम्पादन की और जो पुरानी है, प्राज १० वह बहुत दिनों पीछे मेरे चित्त में फिर नई सी हो गई । (४) 2 बार्हद्रथं येन विवृत्तचक्षुविहस्य सावज्ञमिदं बभाषे । इसी से प्रवज्ञां के साथ प्रांखे बदल कर हंसते-हंसते यह कहा । (५) सन्ध्याव गृह्य करेण भानुः । सूर्य अपनी सन्ध्यारूपिणी वधू को हाथ से पकड़ कर । (६) स पार्षदैरम्बरमपुपुरे। उस शिव ने अपने गणों के साथ आकाश को भर दिया । १. दुर्घटवृत्ति ४।३।२४ पृष्ठ ८२ ( प्र० सं० ) - २. वही ·· इत्यष्टादशे' । ३. गणरत्नमहोदधि ( इटावा संस्क० ) पृष्ठ ७- - तथाहि जाम्बवत्ती हरणे ।' इति चतुर्थे ।' ४. नमि साधु कृत रुद्रट काव्यालंकार टीका । ५. अमरकोश - पदचन्द्रिका टीका ( रायमुकुट ) – ' इति जाम्बवत्यां पाणिनिः । अमरकोश कां० १, वर्ग १, श्लोक ३१ में शिव के गण के लिये 'परिषत्' शब्द आया है, उसका रूपान्तर 'पार्षद' पाणिनि प्रयोग दिया है । १५ २० २५
SR No.002284
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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