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नौवां परिशिष्ट
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आपिशलशिक्षा] पाणिनि-उल्लिखित प्राचीन वैयाकरण आपिशलि की कृति है। जहां तक मैं समझता हूं, ऐसा कोई ठोस साक्ष्य नहीं है जो इसे अन्यथा सिद्ध कर सके। ___E. (पृ० १४८) टि० ३५ (पृ० ३१८)-वान् नूतेन (१९७३: ४०६) भी इस पाठ को प्राचीन समझता है। मैं कहता हूं 'जो इसे ५ अन्यथा सिद्ध कर सके', क्योंकि इस पाठ में ऐसे प्रयोग हैं जिन से मुझे सन्देह होता है कि ग्रन्थ उतना प्राचीन नहीं है जितना घोषित किया गया है। इस प्रकार १.१७-१८ में एत् ऐत प्रोत् प्रौत् (यु० मी० १९६७।८ : २) शब्द प्रयुक्त हैं जो ए ऐ ओ औ के सङ्केत हैं। कात्यायन तथा पतञ्जलि (कीलहान-१८८०-८५ : १:२२.१-२४) १० ने इन स्वरों के तपर-प्रतपर-करण पर विचार किया है। यह सन्देह सम्भव है कि आपिशलि शिक्षा ने महाभाष्य में विचारित विकल्प में से एक को ग्रहण कर लिया हो । परन्तु मैं सम्प्रति इसे सिद्ध नहीं कर सकता।
१०. (पृ० १४८)- यु० मी० १९६७/८ : भूमिका पृ० ८६, १५ १९७३ : ३ : १६४-६५) ने सुझाव दिया है उणादि सूत्रों का पञ्चपादी पाठ भी आपिशलि प्रोक्त है। उन के हेतु अग्रोक्त हैं-प्रापि० शि० में अनुनासिकों का क्रम है : (१) अ म ङ ण न । पाणिनीय
कात्यायन और पतञ्जलि ने ए ऐ ओ औ' के तपर-प्रतपर-करण पर जो विचार किया है वह कल्पनामात्र नहीं है। अपितु जैसे अतपर-करण २० पाणिनीय प्रत्याहार सूत्र में है वैसे ही तपरकरण भी कहीं निर्दिष्ट होना चाहिये।
आपिशलशिक्षा में तपरकरण दृष्ट होने से यह संभावना होती है कि प्रापिशल के प्रत्याहार सूत्र का पाठ 'एत प्रोत ऐत प्रौत् च' रहा होगा। उसी को ध्यान में रखकर कात्यायन और पतञ्जलि ने तपर-अतपर-करण पर विचार किया है। आपिशिलशिक्षा में तपरकरण तत्कालमात्र वर्ण के ग्रहण, (द्र० २५ अष्टा० ११११७०) के लिये नहीं है अपितु मुखसुखार्थ अथवा सन्ध्यभावार्थ है।
श्री जार्ज कार्डोना भूमिका पृष्ठ ८' द्वारा मेरे किस ग्रन्थ की भूमिका का निर्देश किया है यह ज्ञात नहीं हो सका। इसी के आगे १९७३, ३, १६४-६५' पृष्ठ संख्या का निर्देश है । यह मं० व्या० शास्त्र का इतिहास' के दूसरे भाग की पृष्ठ संख्या है यहां भाग ३' के स्थान पर २' होना चाहिये। ३०