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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
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शिव सूत्रों में भी यही क्रम है । परन्तु सूत्रात्मक पाणिनीय शिक्षा में इन का क्रम है— (२) ङ अ ण न म । यह सामान्य स्थानक्रमानुसार है : कण्ठ्य - तालव्य-मूर्धन्य दन्त्य - श्रोष्ठ्य । क्रम ( २ ) को प्रत्याहार 'अम्', बनाने के लिए क्रम ( १ ) में परिवर्तित कर दिया गया होगा । ५ यह प्रत्याहार उणादि सूत्रों (पञ्चपादी १.११३ ) में प्रयुक्त हुआ है । यह मानते हुए कि पाणिनीय शिक्षा का सूत्रपाठ पाणिनि-कृत है, तो यु० मी० निष्कर्ष निकालते हैं कि क्रम (१) जो शिवसूत्रों में उपलब्ध है, मूलतः प्रपिशीय है जिससे पाणिनि ने ग्रहण किया है । अपि च, यतः 'अम्' प्रत्योहार उणादिसूत्रों में प्रयुक्त हुआ है और ( २ ) का १० (१) में परिवर्तन करने का मात्र हेतु यह प्रत्याहार बनाना ही था, अतः प्रकृत उणादि सूत्र प्रापिशलि का ही होना चाहिये । इसके प्रतिरिक्त, उणादिसूत्रों का दशपादी पाठ पञ्चपादी पर प्रधृत है जो प्राचीन है । अतः पञ्चपादी प्रापिशलि का कहा जाना चाहिये । यु० मी० ० (१९७३ : ३ : १६५६ ) स्वीकार करते हैं - 'यह हमारा १५ अनुमान मात्र है । और वास्तव में जिस साक्ष्य पर यह निष्कर्ष प्रावृत है, वह क्षुद्र है। वस्तुतः मैं नहीं समझता कि यह साक्ष्य इस निष्कर्ष को सिद्ध करता है । क्रम (१) शिवसूत्रों में है, परन्तु क्रम (२) उस ग्रन्थ में विद्यमान है जिसका कर्ता विवादास्पद है, इतने मात्र से तत्काल यह स्वीकार करना सन्दिग्ध तथ्य है कि पूर्ववर्ती का ऋणी २० होगा, जब कि वह अनेक सूत्रों में विद्यमान है जो स्पष्टतः पाणिनि के कहे जाते हैं । अपि च, उपर्युक्त हेतु का आधार यह कल्पना है कि (२) का ( १ ) में परिवर्तन के 'म्' प्रत्याहार को बनाने के लिए है । परन्तु यह स्पष्ट नहीं है कि क्रम (१) को स्वीकार करने का केवल यही कारण है । पाणिनि ने (२) क्रम को इसलिए बदला कि 'प्रत्य - २५ ङ्ङास्ते, कुर्वन्नास्ते' जैसे रूप सिद्ध हो सकें ( ८ ३.३२, ङमो ह्रस्वाद० से) और 'त्वम् प्रासे' जैसे रूपों में उस श्रागम की व्यावृत्ति हो सके जहां ह्रस्व अच् से उत्तर मकार विद्यमान है। ह्रस्व से उत्तर ङ ण-न, उन से परे अच् को प्राद्य आगम के विधान तथा त्र - म से उत्तर उसके प्रतिषेध के लिए पाणिनि को अनुनासिकों के क्रम में परिवर्तन करना
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£ यहां भी पूर्ववत् भाग निर्देश में भुल है । द्र० पूर्व पृ० ११०, टि० कु का $
उत्तरार्ध ।