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नौवां परिशिष्ट पड़ा जिस से 'ङम्' प्रत्याहार से 'ङणन' का ग्रहण किया जा सके। इस प्रकार उल्लिखित मूल कल्पना अनावश्यक प्रतीत होती है, तो उपयुक्त हेतु की शक्ति क्षीण हो जाती है।।
११. (पृ० १५१)- यु० मी० (१९७३ : १ : ८०-८८*) ने इन्द्र के काल", उसके व्याकरण तथा तमिल व्याकरण पर उसके ५ प्रभाव पर विचार किया है।
१२. (पृ० १५१)-टि० ३७ (पृ० ३१९)-जिसको उन्होंने १०००० वर्षे ई० पू० स्थापित किया है। १३. (पृ० १५१-१५२) यु० मी० १९६५/६ ए० बीक ने
श्री जार्ज कार्डोना ने जिन प्रयोगों की सिद्धि के लिये पाणिनीय प्रत्या- १० हार सूत्र में 'न म ङ ण न' क्रम परिवर्तन को आवश्यक बताया है उन प्रयोगों की सिद्धि तो आपशलि प्राचार्य को भी करनी इष्ट थी। प्रापिशलि के शब्दानुशासन में प्रत्याहारों का निर्देश था, यह हमने आपिशलि के प्रकरण में विस्तार से दर्शाया है (द्र ० भाग १, सं० ३, पृष्ठ २४५; सं० ४, पृष्ठ १५६ में सृष्टिघर द्वारा उदधृत प्रापिशल-वचन) । प्रापिशलशिक्षा में वर्गक्रम का परित्याग १५ करके अमङणनमाः स्वस्थाननासिकास्थनाश्च (प्रा०शि०१।१६) में जो वर्णक्रम पढ़ा है वह इस बात का सुदृढ़ प्रमाण है कि आपिशलि के व्याकरण में 'जमङणनम' प्रत्याहार सूत्र था। शब्दानुशासन के पश्चात शिक्षा का प्रवचन किया होगा, अतः उसमें भी आपातत, वर्गक्रम का वैपरीत्य सम्भव हो गया । अन्यथा आपिशलशिक्षा में वर्गक्रम के वैपरीत्य का कारण वादी को दर्शाना होगा। २० इस दृष्टि से हमारे हेतु की शक्ति क्षीण नहीं होती। पुनरपि पञ्चपादी उणादिपाठ के साक्षात् प्रापिशलि प्रोक्त प्रमाण उपलब्ध न होने से हमने स्पष्ट लिख दिया कि 'यह हमारा अनुमानमात्र है'। हम प्रमाणरहित कल्पना को अनृतभाषणवत् परित्याज्य समझते हैं। यह श्रेय तो अधिकतर उन पाश्चात्यों को ही प्राप्त है, जो वैदिक वाङमय की गरिमा का मूल्याङ्कन न करके उसे ५ 'गडरियों के गीतों' के समान हेय बताने के लिये प्रयत्नशील रहे हैं।
* प्रस्तुत संस्करण, पृष्ठ ८७-६६ ।
* काशकृत्स्न के प्रकरण में 'सन् १९६५/६' के आगे 'बी' और 'ए' संकेत दिये हैं। इनमें से ए' का अभिप्राय हमारे द्वारा काशकृत्स्न धातुपाठ की कन्नड टीका के संस्कृत रूपान्तरित संस्करण से है । और 'बी' का उसकी ३० भूमिका से है।