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१०८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
४. (पृ० १४७) टि०३० (पृ० ३१८)-वस्तुतः पतञ्जलि सूत्र को उद्धृत नहीं करता, जिसको उत्तरवर्ती टीकाकारों ने 'धेनोरनञः' के रूप में उद्धत किया है। इस तथा प्रापिशलि के अन्य सूत्रों
के लिए, जो टीकानों में उद्धृत हैं, देखो यु० मी० (१९७३ : १ : ५ १३९-४०६)।
५. (पृ० १४७) टि० ३१ (पृ० ३१८)-शाकटायन के तथाकथित अन्य विचारों के लिए देखो यु० मी० ( १९७३ : १ : १६४-६७*)।
६. (पृ० १४७)-कात्यायन और पतञ्जलि भी पूर्व व्याकरणों २० के लिए पूर्वसूत्र शब्द का प्रयोग करते हैं। देखो कीलहान, यु० मी०
(१९७३ : १ : २४१%)। ____७. (पृ० १४८)-टि० ३४ (पृ० ३१८)-रघुवीर (१९३४) तथा यु० मी० सम्पादित (१९६७/८) । वान नूतेन (१९७३) द्वारा
पुनः प्रकाशित । नतेन का ग्रन्थ, जिसमें यु० मी. उल्लिखित नहीं, १५ यु० मी० संस्करण की अपेक्षा घटिया है। उदाहरणार्थ-प्रारम्भ में
सूची है। यु० मो० के ग्रन्थ में (१९६७।८ : १३.) अंशतः पाठ है-'स्थानमिदं करणमिदं प्रयत्न एष द्विधानिलः स्थानं पीडयति ।' नूतेन का पाठ है-"प्रयत्न एष द्विधानिलस्थानं पीडयति' ।
८. (पृ० १४८)-यु० मी० (१९६७।८ : भूमिका, पृ० २-४, २० १९७३:११४४-४५१) सिद्ध करते हैं कि यह पाठ [अर्थात्
प्रस्तुत सं० पृष्ठ १५१-१५२।। * प्रस्तुत सं० पृष्ठ १७८-१८१। . * प्रस्तुत सं० पृष्ठ २६०-२६१॥
* यह पृष्ठ संख्या 'शिक्षा-सूत्राणि' की है। सन्दर्भ के प्रारम्भ में डा० रघुवीर का नाम निर्दिष्ट होने से विदित होता है कि श्री जार्ज कार्डोना का आपिशलिशिक्षा के पाठ की ओर संकेत है। परन्तु शिक्षासूत्राणि की जो पृष्ठ संख्या १३ दी है, उस पर पाणिनीय शिक्षा का पाठ है। प्रापिशलिशिक्षा में यह पाठ पृष्ठ १ पर है। हमारा विचार है-१३' निर्देश के स्थान पर '१:३' निर्देश होना चाहिये । १ संख्या पृष्ठ की है और ३ संख्या सूत्र की।
+ यहां पृष्ठ संख्या २-४ 'शिक्षा-सूत्राणि' की भूमिका की है। दूसरी ३० संख्या सं० व्या० शास्त्र के इति० की है। द्र० प्रस्तुत सं० पृष्ठ १५७-१५८ ।