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नौवां परिशिष्ट
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संख्या उस सन्दर्भ के पृष्ठ की है, जिस पर टिप्पणी लिखी है। दूसरी संख्या टिप्पणी की है और तीसरी ( ) कोष्ठक में निर्दिष्ट संख्या उनके ग्रन्थ के उस पृष्ठ की है जिसमें वह टिप्पणी छपी है। इसी प्रकार मेरे अभिमत का निर्देश करके ( ) कोष्ठक में जो संख्याएं दी हैं उनमें प्रयम प्रकाशन काल के निर्देशार्थ है । दूसरी संख्या ग्रन्थ के भाग को निर्शित करती है और तीसरी संख्या उस भाग के पृष्ठ की है । जहां एक, ही संख्या है, वह ग्रन्थ के प्रकाशन काल की है।
१. (पृष्ठ १३९-१४०)-अाज तक लिखा गया संस्कृत वैया करणों का सब से अधिक पूर्ण इतिहास युधिष्ठिर मीमांसक का है। (१९७३), जिस में कालक्रम तथा ग्रन्थपाठ सम्बन्धी सभी महत्त्वपूर्ण प्रश्नों पर पूर्ण प्रमाणों के साथ विचार किया गया है। यह उपयोगी एवं सुव्यवस्थित सूचना का आकर है।' हिन्दी में संस्कृत व्याकरण का अन्य इतिहास सत्यकाम वर्मा (१९७१) का है जो उतना प्रमाणपूर्ण नहीं है जितना युधिष्ठिर मीमांसक का ग्रन्थ है । युधिष्ठिर मीमांसक द्वारा अपने इतिहास के पूर्व संस्करण में प्रतिपादित मान्य तात्रों से वर्मा प्रायः सहमत नहीं है और यु० मी० ने अपने आधुनिकतम संस्करण में इन शङ्काओं का समाधान करने का प्रयत्न किया है।
२. (पृ० १३९) टि० १ पृ. ३१५ -युधिष्ठिर मीमांसक ने पाणिनि तथा अन्य प्राचीन ग्रन्थकारों को अत्यन्त प्राचीन तिथियों में २० स्थापित किया है, जो सार्वलौकिक स्वीकृति के योग्य नहीं हैं । उनकी अतिराष्ट्रवादी भाषा में, पाश्चात्य भाषाविदों की प्रत्यालोचना (१९७३ : १ : १४१) और भारतीय मान्यताओं तथा पाश्चात्य एवं तदनुयायियों की मान्यताओं के विरोध प्रतिपादन पर उनका आग्रह सर्वथा उपेक्षितव्य है।
३. (पृ० १४६)-आपिशलि काश्यप, गार्ग्य, गालव, चक्रवर्मन्, भारद्वाज, शाकटायन, शाकल्य, सेनक, स्फोटायन । इन के विषय में सर्वाधिक पूर्ण, जानकारी का सर्वेक्षण यु० मी० (१९७३ : १ १३४० ७७£) में प्रकाशित हुआ है।
प्रस्तुत सं० में पृष्ठ १५ ।
प्रस्तुत सं० पृष्ठ १४६-१९२।।