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________________ १० १७८ संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास के राजा नहीं तो राजकीय किसी प्रतिष्ठित पद पर अवश्य ही होंगे, क्योंकि इसी प्राशय का उल्लेख सं० १५५२. में भ० श्रुतकीर्ति द्वारा रचित 'परमेष्ठी प्रकाशसार' तथा 'योगसार' की अपभ्रंश प्रशस्ति में मिलता है। आप ने अपने ग्रंथ 'संस्कृत व्याकरण शास्त्र के इतिहास' ५. में पुंजराज का परिचय केवल ५-७. पंक्तियों में ही दिया है, जब कि उपर्युक्त प्रशस्ति में उनका विस्तृत परिचय उपलब्ध होता है तथा उनके पूर्वजों का भी उल्लेख है। इसके अतिरिक्त आपने सारस्वत की केवल १८ टोकानों का उल्लेख किया है जब कि जैन विद्वानों ने ही अकेले २०-२५ टीकाएं की है। शेष जैनेत्तर विद्वानों की तो पृथक ही है अतः सारस्वत की टीकाओं की संख्या तो ३० के लगभग होना चाहिए । कृपया इस पत्र का प्राशय गलत न समझे। मेरी दृष्टि तो केवल उपलब्ध सामग्री से आपको अवगत कराना ही है। इस टीका की एक प्रति जयपुर के लणकरणजी के मंदिर स्थित भंडार में भी है। डा० कस्तूरचद्र जी कासलीवाले से प्राप्त हो सकती है। शेष शुभ १५ उत्तर देवें और कभी दिल्ली पधारे तो दर्शन देकर अनुगृहीत करें। __ आपके ग्रंथ की प्रशंसा किन शब्दों में करुं सो कुछ लिख नहीं सकता, पर ऐसे ग्रंथ निश्चय ही भारतीय संस्कृति - एवं भाषा की उन्नति के प्रतीक हैं। आपके पत्रोत्तर की प्रतीक्षा में। . प्रापेका कुन्दनलाल जैन ७३४ दरयागंज दिल्ली (४३) श्री पं० रामशंकर भट्टाचार्य के पत्र -- २०-१.६४. पूज्य, गुरुजी वाक्यपदीय का एक नाम वाक्यप्रदोप था। यह बुलहर ने मनु स्मृति के ] मेधातिथिभाष्य की भूमिका में लिखा है-वाक्यपदीय
SR No.002284
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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