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ग्यारहवां परिशिष्ट
(6) ओम्
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श्रार्यसमाज
लछमनसर
अमृतसर
२२-३-४८
प्रियवर पण्डित जी,
नमस्ते ध्वन्यालोक [ पृष्ठ ] ३८६ तीसरा उद्योत की अभिनवगुप्तकृत लोचन टीका में लिखा है
तथा च भागुरिरपि - किं रसानामपि स्थायिसंचारितास्तीत्याक्षिप्य १० अभ्युपगमेनैवोत्तरमवोचद् वाढमस्तीति ।
यह प्रमाण अलंकार शास्त्र से है वहां लिखें ।
'कश्मीर के छपे काठकगृह्य प्रांगल भाषा भूमिका पृष्ठ ६ पर
लौगाक्षिश्च तथा काण्वस्तथा भागुरिरेव च । एते मे
यह पाठ अगस्त्य के श्लोक तर्पण में। भागुरि याजुष प्राचार्यं । १५ यह वचन लिख लें ।
"दुर्ग निरुक्त १।१३ के अन्त भाष्य में - शाकटायनोऽतिपाण्डित्या - भिमानात्
अमृतसर प्रापका प्रबन्ध हो सकता है । सोच कर लिखें । रहना यहीं समाज में होगा । शीघ्र उत्तर देवें ।
भ० दत्त
आपके ग्रन्थ के पृष्ठ ४१ * पर तै० सं० के प्रमाण में 'वायु' वाला पाठ लिखना चाहिये । क्या वही वायु- वायुपुराण में स्मृत है । बहुत सूक्ष्मेक्षिका से देखें | शब्दशास्त्र में वह इन्द्र का सहकारी
भ० दत्त
१. ये अगली पक्तियां पत्र के ऊपर रिक्त स्थान में लिखी हैं। हमने यहां जोड़ी हैं । २. यह पवित भी पत्र के हाशिये पर लिखी है । ३. यह पृष्ठ संख्या लाहौर में सन् १९४७ में छप रहे 'संस्कृत व्याकरण शास्त्र का इतिहास' के पहले भाग की है । यह पा अश वहीं नष्ट हो गया ।
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