________________
१८९
संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
१० .. श्री पं० विरजानन्द दैवकरणि का पत्र
ओ३म्
कन्या गुरुकुल
नरेला, दिल्ली-४०
२६-६-१९७५ ई० मान्यवर थी मीमांसक जी सादर अभिवादन ।
आशा है आपका स्वास्थ्य ईशानुग्रह से ठीक होगा। आप द्वारा प्रकाशित अष्टाध्यायी सटिप्पण को देख रहा था कि एक बात स्मरण हो पाई। २८ दिसम्बर १६७४ को मैंने कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय के हस्तलेख पुस्तक संग्रह के में एक पुस्तक देखा था। उसका नाम है'गणपाठविवत्तिः' । इसे पाणिनि मुनि रचित नया ग्रन्थ (गणपाठ के अतिरिक्त) मानकर उन्होंने दस सहस्र रुपये में खरीदा है, सम्भवतः
१९६८ ई० में। उस पर कोई व्यक्ति शोधकार्य भी कर रहा है। १५ वह ग्रन्थ शारदा लिपि में लिखा है। आद्यन्त में मैंने स्वयं पढ़ा ग्रन्थ ... का नाम तो ठीक है, किन्तु पाणिनि. विरचित ऐसा उल्लेख देखने में
नहीं आया। कहीं बी.त्र में हो तो कह नहीं सकता। किन्तु हस्तलेख में प्राद्यन्त में ही नाम मिलते हैं बीच में नहीं। पं० स्थाणुदत्त का कथन है कि यह प्रन्थ पाणिनि रचित है। ___आपको अन्वेषणरुचि को देखते हुए मैं आपसे निवेदन कर रहा
कि इसकी वस्तुस्थिति की जानकारी कीजिये । कागज अधिक पुराना १ नहीं है । मूर्खतावश अधिकारियों तथा प्रबन्धकों ने मुखपृष्ठ पर नीली स्याही से ग्रन्थ का नाम मोटे अक्षरों में लिख दिया है। जिससे स्याही
फैलकर पृष्ठभाग के हस्तलेख को भी.खराब कर गई है। मैंने उन्हें " ऐसा करने से निषिद्ध कर दिया है।
____पाशा है आप मेरी प्रार्थना पर ध्यान देंगे। अष्टाध्यायी का एक ४; हस्तलेख हमारी दृष्टि में भी है, कभी मिलने पर सूचित करेंगे।
भवदीय
विरजानन्द देवकरणि [इस पत्र का निर्देश मैंने 'सं० व्या० सा० इ०' के द्वितीय भाग के सं. २०४१ के प्रस्तुत संस्करण में पृष्ठ १६६ कर दिया है] . .