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नौवां परिशिष्ट
करता है कि चान्द्रव्याकरण पर स्वयं चन्द्र ने वृत्ति की रचना की। यु० मी० (१९७३ : १ : ५७६-७७) स्वयं इस को स्वीकार करते हैं । यद्यपि यु० मी० के सम्पूर्ण हेतुओं के पूर्ण विमर्श की अनुमति स्थान नहीं देता, तथापि मैं यह कहना युक्त समझता हूं कि कीलहान के निष्कर्ष अस्वीकार्य नहीं प्रकट होते ।* इन उदाहरणों में साक्ष्य ५
£ प्रस्तुत संस्करण, पृष्ठ ६५४-६५५ ।
* हमने इस प्रकरण (पृष्ठ २१६-२२०;=प्रस्तुत सं० पृष्ठ २३४-२३७) में काशिकाकार ने चान्द्र व्याकरण के आधार पर पाणिनीय सूत्रपाठ में प्रक्षेप नहीं किये, इसमें ४ प्रमाण दिये हैं। उनमें से केवल प्रथम प्रमाण अध्यायन्यायोद्याव० पर ही श्री जार्ज कार्डोना ने कीलहान के निष्कर्षों.को प्रमाणित करने के लिये १० छुआ है । क्योंकि उन्हें कुशकाशावलम्ब-न्याय से चान्द्रवृत्ति में ठीक उन्हीं शब्दों का संग्रह मिल गया जिन का पाठ काशिका के उक्त सूत्र (३।३।१२२) में है। दोनों में अवहार का निर्देश नहीं है। परन्तु का?ना महोदय ने प्रमाण सं० २-३-४ को छुपा ही नहीं । पाठकों से हमारा अनुरोध है कि इन पर पुनः विचार करें
(क) काशिका ३।१।१२६ का सूत्रपाठ है पासुयुवपिरपिलपित्रपिचमश्च । . चन्द्राचार्य का (१११११३३) का सूत्र है-पासुयुवपिरपिलपित्रपिचमिदभः । चन्द्र के सूत्रपाठ में वात्तिककारोक्त 'लपि' 'दभि' दोनों का पाठ है। काशिका के पाठ में 'दभि' का पाठ नहीं है । यदि चान्द्रसूत्र के आधार पर काशिकाकार ने 'लपि' का प्रक्षेप कर दिया तो 'दभि' को क्यों छोड़ दिया ? वस्तुतः यह चान्द्र सूत्रपाठ यह ज्ञापन करता है कि काशिकाकार द्वारा स्वीकृत सूत्र चान्द्र को प्राप्त था। उसमें वात्तिकोक्त दभि का निर्देश नहीं था, अत: उसने दभि को अन्त में सन्निविष्ट कर दिया।
(ख) हमारा ३ संख्या का प्रमाण (पृष्ठ २३४-२३५) पर पुन: पढ़ें और हमारे हेतु पर विचार करें । वस्तुत: यहां भी वस्तुस्थिति पूर्ववत उलटी है। २५ चन्द्राचार्य के सन्मुख काशिकाकार वाला पाठ विद्यमान था, परन्तु उससे शकल कर्दम शब्दों से पक्ष में अण की प्राप्ति नहीं होती थी। इसलिये उसने उसके दो विभाग कर दिये 'लाक्षारोचनाट्ठक्, शकलकर्दमाद्वा' ( ३।१।१-२ )। यदि काशिकाकार को चान्द्र सूत्रों के अनुसार ही प्रक्षेप करना था तो उसे प्रथम सूत्र