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संस्कृत व्याकरण - शास्त्र का इतिहास
इस पर विचार उत्पन्न हुआ कि श्री अमूल्यचरणजी ने इस ग्रन्थ के ऊपर प्रापिशली शिक्षा शीर्षक किस आधार पर छापा ? इसके लिए हमने उनकी भूमिका पढ़ी । उसमें उन्होंने इस हस्तलेख के सम्बन्ध में कहीं पर भी नहीं लिखा कि कोश के आदि वा अन्त में 'आपिशली शिक्षा' नाम का उल्लेख है । प्रतीत होता है कि श्री मूल्य चरणजी ने अष्टम प्रकरण के
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स एवमापिशलेः पञ्चदशभेदाख्या वर्णधर्मा भवन्ति ||८||
सूत्र में आपिशलि नाम देखकर ग्रन्थ के आद्यन्त में 'पिशली 'शिक्षा' का नाम जोड़ दिया ।
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अमुल्यचरणजी द्वारा प्रकाशित पाठ अत्यन्त भ्रष्ट है । केवल उसी के आधार पर उस ग्रन्थ का सम्पादन कठिन है । सम्भवत: इसी कारण अमूल्यचरणजी ने हस्तलेख के अनुरूप ही उसे यथातथरूप में छाप दिया । इससे यह भी प्रतीत होता है कि उन्हें डा० रघुवीरजी द्वारा प्रकाशित 'ग्रापिशल शिक्षा,' गौर स्वामी दयानन्द सरस्वती १५ द्वारा प्रकाशित 'पाणिनीय शिक्षा' का ज्ञान नहीं था, अन्यथा वे उनकी सहायता से ग्रन्थ का अच्छा सम्पादन कर सकते थे ।
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हमने उक्त दोनों शिक्षासूत्रों के आधार पर, तथा विविध ग्रन्थों उद्धृत सूत्रों के साहाय्य से इस अमूल्य निधि का सम्पादन किया हैं। जब हमने इस ग्रन्थ के पाठ का सम्पादन कर लिया, तब इस पाठ २० और स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा प्रकाशित पाठ की तुलना से विदित हुआ कि हमारे द्वारा सम्पादित शिक्षा-पाठ वृद्धपाठ है, और स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा प्रकाशित लघुपाठ हैं । अनेक प्राचीन ग्रन्थों के वृद्ध और लघु पाठ उपलब्ध होते हैं । पाणिनि के सूत्रपाठ धातुपाठ गणपाठ उणादिपाठ सभी के लघुपाठ और वृद्ध पाठ हैं ।" २५ इसी प्रकार उसकी सूत्रात्मिका शिक्षा के भी वृद्ध और लघु पाठ हों, तो आश्चर्य ही क्या है । प्राचीन परम्परा के अनुसार वृद्ध और लघु दोनों प्रकार के पाठ एक ही प्राचार्य द्वारा विभिन्न प्रकार से प्रवचन ' के कारण उत्पन्न हुए हैं।
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१. इन पाठों के विषय में हमारे "संस्कृत व्याकरण शास्त्र का इतिहास ३० के तत्तत् प्रकरण देखिए । २. प्राचीन आचार्य शास्त्रीय ग्रन्थ लिखा नहीं करते थे, अपितु पढ़ाया करते थे, अतः वे प्रोक्त कहाते थे ।