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मूल पाणिनीय शिक्षा
६७ में कोई विवाद उठ ही नहीं सकता। अब हम उसके वृद्धपाठ के विषय में लिखते हैं।
पाणिनीय शिक्षासूत्र का वृद्धपाठ-पाणिनीय शिक्षासूत्रों का जो वृद्धपाठ हम इस संस्करण में प्रकाशित कर रहे हैं, उसकी उपलब्धि की कथा भी विचित्र है । वह इस प्रकार है
सन् १९३६ में 'दि इण्डियन रिसर्च इन्स्टीट्यूट' कलकत्ता से 'आपिशली शिक्षा' नाम से एक शिक्षा प्रकाशित हुई। पुस्तक के मुख पृष्ठ पर 'अध्यापक अमूल्यचरण विद्याभूषण कर्तृक सम्पादित और अनूदित' शब्द छपे हुए हैं । इसमें बंगला अनुवाद तो अवश्य है, परन्तु सम्पादन के नाम पर किया जानेवाला कोई भी प्रयत्न इसमें नहीं है। १० हां, तीन स्थानों पर कोष्ठक में प्रश्नचिह्न (?) अवश्य उपलब्ध होते हैं । अस्तु, हमारे लिए तो यह प्रयत्नाभाव भी वरदान-रूप सिद्ध हया । उक्त ग्रन्थ को देखने से विदित होता है कि मुद्रित ग्रन्थ उपलब्ध हस्तलेख की अक्षरशः प्रतिलिपिमात्र है, और वह लेखकप्रमाद से बहुत भ्रष्ट हो गया है। पाठ स्थान-स्थान पर खण्डित और आगे- १५ पीछे हो रहा है।
हमारी दृष्टि में यह ग्रन्थ सन् १९५३ में आया था। इस पर 'प्रापिशली शिक्षा' नाम छपा होने से चिरकाल तक हमने इस पर ध्यान नहीं दिया। एक दिन विचार उत्पन्न हुग्रा क इसको आपिशल शिवा-सूत्र से मिलाया जाय । तब हमने सन् १९४९ में स्वयं मुद्रा- २० पित प्रापिशल शिक्षासूत्रों से मिलान करना प्रारम्भ किया। उस तुलना में अणनमा नासिकास्थानाः पाठ ने हमारा ध्यान विशेषरूप से आकृष्ट किया, क्योंकि यह वर्णानुक्रम पाणिनीय शिक्षा-सूत्र में है। आपिशल शिक्षा में जमङणनाः पाठ है । इसके पश्चात् तृतीय प्रकरण के विवृतकरणा वा सूत्र ने यह बोध कराया कि सम्भव है यह शिक्षा २५ पाणिनीय ही हो, आपिशल शिक्षा न हो। इस दृष्टि से सम्पूर्ण सत्रों की तुलना स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा प्रकाशित शिक्षासूत्रों के साथ की, तब यह निश्चय हो गया कि जहां-जहां भी अमूल्यचरण विद्याभूषण द्वारा प्रकाशित शिक्षा का पाठ प्रापिशल शिक्षा से भिन्न है, वहां-वहां वह सर्वत्र स्वामी दयानन्द सरस्वती द्वारा प्रकाशित ३० शिक्षासूत्रों से मिलता है। इस तुलना से इतना निश्चय हो गया कि यह पाठ पाणिनीय शिक्षा का ही है, आपिशल शिक्षा का नहीं।