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________________ श्रात्म-परिचय ११ कार्य करते हुए भी संस्कृत वाङ्मय की श्रीवृद्धि तथा ऋषि ऋणनिर्मोचन के लिए अध्ययन-अध्यापन और शोध कार्य में अद्ययावत् यथाशक्ति संलग्न हूं । मैंने अपने जीवन में जो कुछ भी कार्य किया है, उसका प्रधान श्रेय मेरी सहधर्मिणी यशोदादेवी को है जिसने ब्राह्मणोचित प्रयाचित-वृत्ति से प्राप्त स्वल्प प्राय में परिवार का भरणपोषण करते हुए जीवन निर्वाह करने में मुझे पूर्ण सहयोग दिया है। अध्ययन और विवाह के अनन्तर संस्कृत वाङ् मय के रक्षण और प्रचार के लिये किये गये प्रध्यापन और शोधकार्य का विवरण प्रस्तुत किया जाता है— कृतकार्य-विवरण मैंने परिवार के निर्वाह के लिये भी अद्य यावत् प्रधानतया दो प्रकार के कार्यों का ही आश्रय लिया है। प्रथम अध्यापन, द्वितीय शोध कार्य । (१) अध्यापन-कार्य मैंने संस्कृत वाङ्मय के अध्यापन का कार्य दो प्रकार से किया । एक किसी संस्था के साथ संबद्ध होकर और दूसरा स्वतन्त्ररूप से यथा (क) सन् १९३६ से १९४२ पर्यन्त लाहौर रावी पार 'विरजानन्द साङ्गवेदविद्यालय' में महाभाष्यपर्यन्त पाणिनीय व्याकरण और froad शास्त्र का अध्यापन कार्य किया । (ख) सन् १९४३ - ४५ पर्यन्त अजमेर में रहते हुये स्वतन्त्ररूप से महाभाष्य और निरुक्त आदि का अध्यापन किया । (ग) सन् १९४६ से ३१ जुलाई १९४७ तक लाहौर के पूर्व निर्दिष्ट विद्यालय में अध्यापन कार्य किया । (घ) सन् १९४७ के देश-विभाजन के पश्चात् सन् १९४७ के अन्त से १९५० के आरम्भ तक अजमेर में रहते हुये स्वतन्त्ररूप से व्याकरणशास्त्र का अध्यापन करता रहा । (ङ) सन् १९५०-५५ के आरम्भ तक लाहौर से स्थानान्तरित
SR No.002284
Book TitleSanskrit Vyakaran Shastra ka Itihas 03
Original Sutra AuthorN/A
AuthorYudhishthir Mimansak
PublisherYudhishthir Mimansak
Publication Year1985
Total Pages340
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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