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ग्यारहवां परिशिष्ट
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प्राचार्य एवं अध्यक्ष
संस्कृत विभाग दयानन्द भार्गव
जोधपुर विश्वविद्यालय, जोधपुर-342001
१६.११.७६
दिनाङ्कः ......... श्रद्धेय श्री मीमांसक जी
सादर नमस्कार आपके १५.९.७६ के पत्र का उत्तर इतने विलम्ब से देने के लिये , क्षमाप्रार्थी हूं किन्तु इस विलम्ब का कारण सम्भवतः मेरे ऊपर .१० मुद्रित पते से स्पष्ट हो गया होगा । आपका पत्र जम्मू से स्थान ' स्थानान्तरों में घूमता हुआ मुझे मिला ही विलम्ब से । मैं सन् ७३ के बाद जम्मू से प्रयाग, प्रयाग से दिल्ली तथा दिल्ली से अब यहां जोधपुर पहुंच गया हूं। ___ प्राचार्य विश्वेश्वर सूरि कृत व्याकरणसिद्धान्तसुधानिधि के तीन १५ अध्याय बनारस से छपे थे, वे दिल्ली विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में उपलब्ध हैं। शेष पांच अध्याय उस समय उपलब्ध नहीं हो] सकने के कारण नहीं छपे । सन् ७३ में वे शेष पांच अध्याय भी मुझे जम्मू में रघुनाथ मन्दिर के पुस्तकालय में मिल गये। धर्मार्थ ट्रस्ट के ट्रस्टी डा. कर्णसिंह की अनुमति-पूर्वक श्री रणवीर केन्द्रीय संस्कत २० विद्यापीठ, जम्मू में प्राचार्य पद पर रहते हुए मैंने उन पांच अध्यायों की प्रतिलिपि करली जो मेरे पास है । पाण्डलिपि अशुद्धियों से भरी हुई है अतः उसका संशोधन कोई सरल कार्य नहीं क्योंकि उसकी कोई दूसरी पाण्डुलिपि उपलब्ध है नहीं। ऐसी दशा में अभी मैं चतुर्थ अध्याय का ही संशोधन कर पाया हूं । ग्रन्थ पूर्ण है किन्तु उसके अनेक २५ अंश दीमक खा गयी है, उन अंशों की पूति अपनी बुद्धि से ही सम्भावित पाठ दे कर करनी है। अभी तक कोई भाग मैंने नहीं छपवाया है। मैं प्रारम्भ में ४-८ अध्याय ही प्रकाशित करवाने की
१. इस पत्र का निर्देश 'सं० व्या० शा० इ०' के प्रस्तुत संस्करण (सं. २०४०) प्र. भाग के पृ० ५४० पर कर दिया है। .. ३०