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संस्कृत व्याकरण-शास्त्र का इतिहास
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श्री पं० दयानन्द मार्गव का पत्र [नवभारत टाइम्स (देहली) के १३ अक्टूबर ७३ के अंक में 'अष्टाध्यायी पर दुर्लभ टीका मिली' शीर्षक से एक सूचना छपी थी । वह इस ५ प्रकार थी
_ 'जम्मू १२ अक्टूबर (नभाटा) प्राचीन भारत के महान् व्याकरणाचार्य पाणिनि की अष्टाध्यायी पर यहां एक दुर्लभ टीका प्राप्त हुई है। रघुनाथ संस्कृत पुस्तकालय में इसके अतिरिक्त संस्कृत की ६००० महत्त्वपूर्ण पाण्डुलिपियां भी हैं।
अष्टाध्यायी की टीका १६०० पृष्ठों की है, जिसमें पाणिनि की कृति के पाठों भागों की व्याख्या की गयी है, यह १८ वीं शताब्दी के प्रारम्भ में अल्मोड़ा (उत्तरप्रदेश) के पंडित विश्वेश्वर ने लिखी थी। ___पंडित विश्वेश्वर ने हर्ष के नैषधीय चरित और भानुदत्त की 'रसमञ्जरी'
पर भी टीकाएं लिखीं, ये टीकाएं १६३८ (सन् १७१६)२ में लिखी १५ गयीं थी।"
इस सूचना के प्रकाशित होने के लगभग कई वर्ष पश्चात् मुझे किसी प्रकार इस ग्रन्थ के सम्पादन करने वाले श्री पं० दयानन्द भार्गव (रणवीर केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ जम्मू के प्राचार्य) का पता ज्ञात हुआ। उन्हें मैंने
१९७६ को इस प्रन्थ की जानकारी के लिये पत्र लिखा । उस पत्र का जो २० उत्तर प्राप्त हुआ वह नीचे छाप रहा हूं]
१. अगली टिप्पणी देखें।
२. यहां सन् १७१६ का निर्देश अशुद्ध है। लेखक ने १६३८ को शक संवत् मानकर सन् १७१६ का निर्देश किया है। वस्तुतः १६३८ विक्रम संवत् है। भट्टोजिदीक्षित के पुत्र भानुजिदीक्षित की रसमञ्जरी पर टीका लिखने तथा भट्टोजिदीक्षित के पौत्र हरिदीक्षित विरचित प्रौढ़ मनोरमा का विश्वेश्वर सूरि विरचित व्याकरणसिद्धान्त-सुधानिधि में उल्लेख न होने से विश्वेश्वर सूरि का काल सं० १६००-१६५० के मध्य ही निश्चित होता है। द्र० सं० व्या. शा० का इ० भाग १ पृष्ठ ५४१ । ।....