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पाणिनीय व्याकरण की वैज्ञानिक व्याख्या
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संस्कृति के प्रङ्ग होते हैं । कुछ धर्म कर्म सभ्यता के अंशरूप होते हैं । वे देश काल और परिस्थिति के अनुसार बदलते रहते हैं । देशकालानुसार परिस्थितियां बदलने पर उस उस समय के प्राचार्य समाज की सुरक्षा के लिये सामाजिक नियमों में परिवर्तन करते रहते हैं । अतः ये नियम देशकाल परिस्थिति के अनुरूप होने से सापेक्ष होते हैं । इसलिए यह एकान्त सत्य नहीं होते । अन्यथा एक ही समाज में एक ही काल में देश वा परिस्थिति के भेद से परस्पर विरोधी धर्मों का आचरण उपलब्ध नहीं होता । यथा उत्तर भारत में विवाह रात में ही होते हैं, और सुदूर दक्षिण में दिन में प्रायः प्रातः काल । इतना ही नहीं, पञ्जाबियों में विवाह वारह मास होते रहते हैं, परन्तु अन्य १० लोगों में कुछ नियत मासों में ही विवाह होते हैं ।
यतः शब्दकारों ने शब्द को नित्य माना है । अतः इसकी तुलना धर्म शास्त्रीय देश - कालातीत नित्य धर्मों से ही की जा सकती है, न कि देश काल परिस्थित्यनुसार बदलने वाले धर्मों के साथ ।
आश्चर्य का विषय तो यह है कि जिस कलौ पाराशरी स्मृता दृष्टान्त के बल पर आधुनिक वैयाकरण देश काल के भेद से साधु शब्द के प्रयोग अप्रयोग की वा धर्म-अधर्म की कल्पना करते हैं, वह वचन धर्मशास्त्र के निबन्धकारों को ही पूर्णतः मान्य नहीं है । अन्यथा निबन्धकारों का पाराशर स्मृति को छोड़कर मन्वादि स्मृतियों को प्रामाणरूप में उपस्थित करना भी असङ्गत हो जाएगा । यही स्थिति २० व्याकरण - शास्त्र के विषय में जाननी चाहिए। अन्यथा स्वयं पाणिनि का अपने से पूर्व भावी प्रापिशलि आदि आचार्यों के मतों वा उनकी संज्ञाओं का निर्देश कराना व्यर्थ हो जाएगा ।
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व्याकरण-शास्त्र में यथोत्तरमुनीनां प्रामाण्यम् सदृश नियमों की कल्पना तो इधर ५-६ शताब्दियों में हुई है । पाणिनीय व्याकरण के प्राचीन व्याख्याता न्यूनातिन्यून इस दोष से प्रायः असम्पृक्त ही रहे हैं । इसीलिये उन्होंने न प्राचीन शिष्ट प्रयोगों को अपशब्द माना, और न ही व्याकरणान्तर बोधित शब्दों के संग्रह में कृपणता ही बरती ।
प्राचीन मतों के संग्रह में महाभाष्यकार की सम्मति - महाभाष्य- ३० कार के मतानुसार तो पाणिनीय व्याकरण द्वारा अनुक्त प्राचीन